पतझड़ की आवाज़
यह कहानी की मरकज़ी किरदार तनवीर फ़ातिमा की ज़िंदगी के तजुर्बात और ज़ेहनियत की अक्कासी करती है। तनवीर एक अच्छे परिवार की सुशिक्षित लड़की है लेकिन ज़िंदगी जीने का फ़न उसे नहीं आता। उसकी ज़िंदगी में एक के बाद एक तीन मर्द आते हैं। पहला मर्द खु़श-वक़्त सिंह है जो ख़ुद से तनवीर फ़ातिमा की ज़िंदगी में दाख़िल होता है। दूसरा मर्द फ़ारूक़, पहले खु़श-वक़्त सिंह के दोस्त की हैसियत से उससे परिचित होता है और फिर वही उसका सब कुछ बन जाता है। इसी तरह तीसरा मर्द वक़ार हुसैन है जो फ़ारूक़ का दोस्त बनकर आता है और तनवीर फ़ातिमा को दाम्पत्य जीवन की ज़ंजीरों में जकड़ लेता है। तनवीर फ़ातिमा पूरी कहानी में सिर्फ़ एक बार ही अपने भविष्य के बारे में कोई फ़ैसला करती है, खु़श-वक़्त सिंह से शादी न करने का। और यही फ़ैसला उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल साबित होता है क्योंकि वह अपनी ज़िंदगी में आए उस पहले मर्द खु़श-वक़्त सिंह को कभी भूल नहीं पाती।
क़ुर्रतुलऐन हैदर
रज़्ज़ो बाजी
पहला प्यार भुलाए नहीं भूलता है। एक अर्से बाद रज़्ज़ो बाजी का ख़त आता है। वही रज़्ज़ो जो पंद्रह साल पहले हमारे इलाके़ के मशहूर मोहर्रम देखने आई थीं। उसी मोहर्रम में हीरो की उनसे मुलाकात हुई थी और वहीं वह एहसास उभरा था जिसने रज़्ज़ो बाजी को फिर कभी किसी का न होने दिया। अपनी माँ के जीते जी रज़्ज़ो बाजी ने कोई रिश्ता क़बूल नहीं किया। फिर जब माँ मर गई और बाप पर फ़ालिज गिर गया तो रज़्ज़ो बाजी ने एक रिश्ता क़बूल कर लिया। लेकिन शादी से कुछ अर्से पहले ही उन पर जिन्नात आने लगे और शादी टूट गई। इसके बाद रज़्ज़ो बाजी ने कभी किसी से रिश्ते की बात न की। सिर्फ़ इसलिए कि वह मोहर्रम में हुए अपने उस पहले प्यार को भूला नहीं सकी थीं।
क़ाज़ी अबदुस्सत्तार
वो बुढ्ढा
एक जवान और खू़बसूरत लड़की की कहानी है, जिसकी मुठभेड़ एक रोज़ सड़क पर चलते हुए एक बुड्ढे से हो जाती है। बुड्ढ़ा उसकी खू़बसूरती और जवानी की तारीफ़ करता है तो पहले तो उसे बुरा लगता है लेकिन रात में जब वह अपने बिस्तर पर लेटती है तो उसे तरह-तरह के ख़्याल घेर लेते हैं। वह उन ख़्यालों में उस वक़्त तक गुम रहती है जब तक उसकी मुलाक़ात अपने होने वाले शौहर से नहीं हो जाती।
राजिंदर सिंह बेदी
वक़्फ़ा
अतीत की यादों के सहारे बे-रंग ज़िंदगी में ताज़गी पैदा करने की कोशिश की गई है। कहानी का प्रथम वाचक अपने स्वर्गीय बाप के साथ गुज़ारे हुए वक़्त को याद कर के अपनी बिखरी ज़िंदगी को आगे बढ़ाने की जद-ओ-जहद कर रहा है जिस तरह उसका बाप अपने घर बनाने के हुनर से पुरानी और उजाड़ इमारतों की मरम्मत करके क़ाबिल-ए-क़बूल बना देता था। नय्यर मसऊद की दूसरी कहानियों की तरह इसमें भी ख़ानदानी निशान और ऐसी विशेष चीज़ों का ज़िक्र है जो किसी की शनाख़्त बरक़रार रखती हैं।
नैयर मसूद
पीतल का घंटा
एक ज़माने में क़ाज़ी इमाम हुसैन अवध के ताल्लुकादार थे, उनकी बहुत ठाट-बाट थी.। हर कोई उनसे मिलने आता था। अपनी शादी के वक़्त जब हीरो पहली बार उनसे मिला था तो उन्होंने उसे अपने यहाँ आने की दावत दी थी। अब एक अर्सा बाद उनके गाँव के पास से गुज़रते वक़्त बस ख़राब हो गई तो वह क़ाज़ी इमाम हुसैन के यहाँ चला गया। वहाँ उसने देखा कि क़ाज़ी साहब का तो हुलिया ही बदला हुआ है। कहाँ वह ठाट-बाट और कहाँ अब पैवंद लगे कपड़े पहने हैं। क़ाज़ी साहब के यहाँ इस समय इतनी गु़रबत है कि उन्हें मेहमान की मेहमान-नवाज़ी करने के लिए अपना मोहर लगा पीतल का घंटा तक बेच देना पड़ता है।
क़ाज़ी अबदुस्सत्तार
चोरी
यह एक ऐसे बूढ़े बाबा की कहानी है जो अलाव के गिर्द बैठ कर बच्चों को अपनी ज़िंदगी से जुड़ी कहानी सुनाता है। कहानी उस वक़्त की है जब उसे जासूसी नॉवेल पढ़ने का दीवानगी की हद तक शौक़ था और अपने उस शौक़ को पूरा करने के लिए उसने किताबों की एक दुकान से अपनी पसंद की एक किताब चुरा ली थी। उस चोरी ने उसकी ज़िंदगी को कुछ इस तरह बदला कि वह सारी उम्र के लिए चोर बन गया।
सआदत हसन मंटो
डरपोक
यह कहानी एक ऐसे शख़्स की है जो औरत की शदीद ख़्वाहिश होने के चलते रंडीख़ाने पर जाता है। उसने अभी तक की अपनी ज़िंदगी में किसी औरत को छुआ तक नहीं था। न ही उसने अभी तक किसी से इज़हार-ए-मोहब्बत किया था। ऐसा नहीं था कि उसे कभी कोई मौक़ा न मिला हो। मगर उसे जब भी कोई मौक़ा मिला वह किसी अनजाने ख़ौफ़़ के चलते उस पर अमल न कर सका। मगर पिछले कुछ दिनों से उसे औरत की बेहद ख़्वाहिश हो रही थी। इसलिए वह उस जगह तक चला आया था। रंडीख़ाना उससे एक गली दूर था, पर पता नहीं किस डर के चलते उस गली को पार नहीं कर पा रहा था। अंधेरे में तन्हा खड़ा हुआ वह आस-पास के माहौल को देखता है और अपने डर पर क़ाबू पाने की कोशिश करता है। मगर इस से पहले कि वह डर को अपने क़ाबू में करे, डर उसी पर हावी हो गया और वह वहाँ से ऐसे ही ख़ाली हाथ लौट गया।
सआदत हसन मंटो
उसके बग़ैर
यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जो बहार के मौसम में तन्हा बैठी अपने पहले प्यार को याद कर रही है। उन दिनों उसकी बहन के बहुत से चाहने वाले थे मगर उसका कोई प्रेमी नहीं था। और इसी बात का उसे अफ़सोस था। अचानक उसकी ज़िंदगी में आनंद आ गया और उसने उसकी पूरी ज़िंदगी ही बदल दी। उन्होंने मिलकर एक ट्रिप का प्लान बनाया। उस सफ़र में उन दोनों के साथ कुछ ऐसे हादसे हुए जिनकी वजह से वह उस सफ़र को कभी नहीं भूला सकी।
अहमद अली
मुरासिला
इस कहानी में एक परम्परावादी घराने की परम्पराओं, आचार-व्यवहार और रहन सहन में होने वाली तब्दीलियों का ज़िक्र है। कहानी के मुख्य पात्र के घर से उस घराने के गहरे मरासिम हुआ करते थे लेकिन वक़्त और मसरुफ़ियत की धूल उस ताल्लुक़ पर जम गई। एक लम्बे समय के बाद जब प्रथम वाचक उस घर में किसी काम से जाता है तो उनकी जीवन शैली में होने वाली तब्दीलियों पर हैरान होता है।
नैयर मसूद
महावटों की एक रात
महावटों की रात है और घनघोर बरसात हो रही है। एक ग़रीब परिवार जिसमें तीन छोटे बच्चे भी हैं एक छोटे कमरे में सिमटे-सिकुड़े लेटे हुए हैं। घर की छत चू रही है। ठंड लग रही है और भूख से पेटों में चूहे कूद रहे हैं। बच्चों की अम्मी अपनी पुराने दिनों को याद करती है और सोचती है कि शायद वह जन्नत में है। जब बच्चे बार-बार उससे खाने के लिए कहते हैं तो वह उसके बारे में सोचती है और कहती है कि अगर वह होता तो कुछ न कुछ खाने के लिए लाता।
अहमद अली
मालकिन
उस हवेली की पूरे इलाके में बड़ी ठाट थी। हर कोई उसके आगे सिर झुका कर चलता था। लेकिन विभाजन ने सब कुछ बदल दिया था और फिर उसके बाद 1950 के सैलाब ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। उसके बाद हवेली को लेकर हुई मुक़दमेबाज़ी ने भी मालकिन को किसी क़ाबिल न छोड़ा। मालकिन का पूरा ख़ानदान पाकिस्तान चला गया था। वहाँ से उनके एक चचा-ज़ाद भाई ने उन्हें बुलवा भी भेजा था लेकिन मालकिन ने जाने से मना कर दिया। वह अपना सारा काम चौधरी गुलाब से करा लिया करती थीं। बदलते वक़्त के साथ ऐसा समय भी आया कि हवेली की बची-खुची शान-ओ-शौकत भी जाती रही और वह किसी खंडहर में तब्दील हो गई। नौबत यहाँ तक आ गई कि मालकिन ने गुज़ारा करने के लिए कुर्ते सीने का काम शुरू कर दिया। इस काम में चौधरी गुलाब उनकी मदद करता है। लेकिन इस मदद को लोगों ने अपने ही तरह से लिया और दोनों को बदनाम करने लगे।
क़ाज़ी अबदुस्सत्तार
बर्फ़बारी से पहले
यह एक मोहब्बत के नाकाम हो जाने की कहानी है, जो बँटवारे के पहले के मसूरी में शुरू हुई थी। अपने दोस्तों के साथ घूमते हुए जब उसने उसे देखा था तो देखते ही उसे यह एहसास हुआ था कि यही वह लड़की है जिसकी उसे तलाश थी। मगर यह मोहब्बत शुरू होती उससे पहले अपने अंजाम को पहुँच गई और फिर विभाजन हो गया, जिसने कई ख़ानदानों को बिखेर दिया और एक बसे-बसाए शहर का पूरा नक्शा ही बदल गया।
क़ुर्रतुलऐन हैदर
गुज़रे दिनों की याद
हमारी ज़िंदगी में कभी-कभी कोई ऐसा लम्हा आता है जो बीते दिनों की एक ऐसी खिड़की खोल देता है कि उससे यादों की पूरी बहार चली आती है। इस तरह कि हम चाहकर भी उनमें से अपनी मनचाही याद को नहीं चुन सकते। कहानी का नायक भी कुछ ऐसी ही कशमकश में उलझा हुआ है। वह घर में है कि अचानक फ़ोन की घंटी बजती है। सामने से आवाज़ आती है कि वह बताये कि यह आवाज़ किसकी है? नायक अपनी याददाश्त के अनुसार ढेर सारी लड़कियों के नाम लेता है लेकिन उस लड़की का नाम नहीं बता पाता जो उससे बात कर रही है। वह बहुत देर तक याद करने की कोशिश करता है कि आख़िर उससे बात करने वाली लड़की है कौन?
अहमद अली
जब मैं छोटा था
बच्चों की नफ़्सियात पर मब्नी कहानी है। बच्चों के सामने बड़े जब अख़लाक़-ओ-आदत संवारने के लिए अपने बचपन की वाक़िआत को सुनाते हैं तो उन वाक़िआत में उनकी छवि एक नेक और शरीफ़ बच्चे की होती है। असल में ऐसा होता नहीं है, लेकिन जान बूझ कर ये झूठ बच्चों की नफ़्सियात पर बुरा असर डालती है। इस कहानी में एक बाप अपने बेटे को बचपन में की गई चोरी की वाक़िआ सुनाता है और बताता है कि उसने दादी के सामने क़बूल कर लिया था और दादी ने माफ़ कर दिया था। लेकिन बच्चा एक दिन जब पैसे उठा कर कुछ सामान ख़रीद लेता है और अपनी माँ के सामने चोरी को क़बूल नहीं करता तो माँ इतनी पिटाई करती है कि बच्चा बीमार पड़ जाता है। बच्चा अपने बाप से चोरी के वाक़िआ को सुनाने की फ़र्माइश करता है। बाप उसकी नफ़्सियात समझ लेता है और कहता है बेटा उठो और खेलो, मैंने जो चोरी की थी उसे आज तक तुम्हारी दादी के सामने क़बूल नहीं किया।
राजिंदर सिंह बेदी
बुन बस्त
"कहानी में दो ज़माने और दो अलग तरह के रवय्यों का टकराव नज़र आता है। कहानी का मुख्य पात्र अपने बे-फ़िक्री के ज़माने का ज़िक्र करता है जब शहर का माहौल पुर-सुकून था। दिन निकलने से लेकर शाम ढ़लने तक वो शहर में घूमता फिरता था लेकिन एक ज़माना ऐसा आया कि ख़ौफ़ के साये मंडलाने लगे, फ़सादात होने लगे। एक दिन वो बलवाइयों से जान बचा कर भागता हुआ एक तंग गली के तंग मकान में दाख़िल होता है तो उसे वो मकान पुर-असरार और उसमें मौजूद औरत खौफ़ज़दा मालूम होती है, इसके बावजूद उसके खाने पीने का इंतिज़ाम करती है, लेकिन ये उसके ख़ौफ़ की परवाह किए बिना दरवाज़ा खोल कर वापस लौट आता है।"
नैयर मसूद
मिस टीन वाला
यह एक मनोवैज्ञानिक मरीज़़ के मानसिक उलझाव और परेशानियों पर आधारित कहानी है। ज़ैदी साहब एक शिक्षित व्यक्ति हैं और बंबई में रहते हैं। पिछले कुछ दिनों से वह एक बिल्ले की अपने घर में आमद-ओ-रफ़्त से परेशान हैं। वह बिल्ला इतना ढीट है कि डराने, धमकाने या फिर मारने के बाद भी टस से मस नहीं होता। खाने के बाद भी वह उसी तरह अकड़ के साथ ज़ैदी साहब को घूरता हुआ घर से बाहर चला जाता है। उसके इस रवय्ये से ज़ैदी साहब इतने परेशान होते हैं कि वह दोस्त लेखक से मिलने चले आते हैं। वह अपने दोस्त की अपनी स्थिति और उस बिल्ले की हठधर्मी की पूरी दास्तान सुनाते हैं तो फिर लेखक के याद दिलाने पर उन्हें याद आता है कि बचपन में स्कूल के बाहर मिस टीन वाला आया करता था, जो मि. ज़ैदी पर आशिक़ था। वह भी उस बिल्ले की ही तरह ठीट, अकड़ वाला और हर मार-पीट से बे-असर रहा करता था।
सआदत हसन मंटो
बुढ़ापा
एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जो एक वेश्या से मोहब्बत के कारण अपनी पत्नी को तलाक़ दे देता है। उसके इस तलाक़ में मस्जिद का मौलवी दोनों पक्षों को खू़ब लूटता है। पचास साल बाद जब वह दोबारा उस गाँव में आता है तो मौलवी उसे सारी बात सच-सच बता देता है। मौलवी का बयान सुनकर वह अपनी पत्नी की क़ब्र पर जाता है, और चाहकर भी रो नहीं पाता।
मजनूँ गोरखपुरी
मुलाक़ाती
छोटी-छोटी बातों को लेकर मियाँ-बीवी के बीच होने वाले वाद-विवाद को इस कहानी में दिखाया गया है। सुबह आने वाले किसी मुलाक़ाती पर संदेह करती हुई बीवी अपने शौहर से पूछती है कि सुबह उनसे कौन मिलने आया था? बीवी के इस सवाल के जवाब में शौहर उसके सामने हर तरह की दलील पेश करता है, मगर बीवी को किसी बात पर यक़ीन नहीं आता।
सआदत हसन मंटो
सबसे छोटा ग़म
यह एक ऐसी दुखियारी औरत की कहानी है जो अपने हालात से परेशान होकर हज़रत शेख़ सलीम चिश्ती की दरगाह पर जाती है। वह यहाँ उस धागे को ढूंढ़ती है जो उसने सालों पहले उस शख़्स के साथ बाँधा था जिससे वह मोहब्बत करती थी और जो अब उसका था। दरगाह पर और भी बहुत से परेशान हाल मर्द-औरतें हाज़िरी दे रहे थे। वह औरत उन हाज़िरीन की परेशानियों को देख कर दिल ही दिल में सोचती है कि उनके दुखों के आगे उसका ग़म कितना छोटा है।
आबिद सुहैल
क़ैदख़ाना
एक ऐसे शख़्स की कहानी, जो तन्हा है और वक़्त गुज़ारी के लिए हर रोज शाम को शराब-ख़ाने में जाता है। वहाँ अपने रोज़ के साथियों से उसकी बातचीत होती है और फिर वह पेड़ों के झुरमुट के पीछे छुपे अपने मकान में आ जाता है। मकान उसे किसी क़ैदख़ाने की तरह लगता है। वह मकान से निकल पड़ता है और क़ब्रिस्तान, पहाड़ियों और दूसरी जगहों से गुज़रते, लोगों के मिलते और उनके साथ वक़्त गुज़ारते हुए वह इस नतीजे पर पहुँचता है कि यह ज़िंदगी ही एक क़ैदख़ाना है।
अहमद अली
मॉडल टाउन
हसद की आग में जलते एक नौजवानी की कहानी, वह जानता है कि जिस लड़की से वह शादी कर रहा है वह किसी और से प्यार करती है। फिर भी वह नौकरी के लालच में आकर उससे शादी कर लेता है और मॉडल टाउन में आकर बस जाता है। एक रोज़ बस में सफ़र करते हुए उसे वही शख़्स मिल जाता है जिससे उसकी बीवी मोहब्बत करती है। वह शख़्स उस नौजवान को शाम को रीगल सिनेमा पर मिलने के लिए कहता है। नौजवान शाम को वहाँ पहुँच जाता है लेकिन वह शख्स नहीं आता है। फ़िल्म देखकर वह वापस घर आता है और बद-हवासी में तरह-तरह के ख़्याल उसके दिमाग़ में तारी हो जाते हैं। वह मॉडल टाउन जाना चाहता है, लेकिन अपनी उस अजीब-ओ-ग़रीब कैफ़ियत में वह क्या वाक़ई मॉडल टाउन जा पाता है...? यह तो कहानी पढ़कर ही पता चल पाता है।
क़ाज़ी अबदुस्सत्तार
रूपा
यह कहानी एक ऐसे शख़्स की है जिसका बाप रजब अवध की गढ़ी की सियासत में काफ़ी फल-फूल गया था। उसने अपने बेटे हुसैन को भी अपनी तरह पहलवान बनाया था। मगर जवानी में उसे अपने बाप के दुश्मन मुनव्वर की बेटी रूपा से मोहब्बत हो जाती है। उस मोहब्बत में रजब की जान चली जाती है, पर हुसैन रूपा को अपने घर लाने में कामयाब रहता है। वह रूपा को ब्याह तो लाया था पर कभी उसके दिल में जगह नहीं बना सका था, क्योंकि रूपा को उसका दुबला-पतला शरीर पसंद नहीं था। फिर अचानक ऐसा कुछ हुआ जिसकी वजह से वह उससे मोहब्बत किए बिना रह न सकी।
क़ाज़ी अबदुस्सत्तार
लाला इमाम बख़्श
मोहर्रम में माँगी गई दुआ के सिले में पैदा हुए देवी प्रसाद बख़्श ने अपने बेटे का नाम लाला इमाम बख़्श रख दिया था। इमाम बख़्श देवी प्रसाद का इकलौता बेटा था, इसलिए उन्होंने उसे कभी कुछ नहीं कहा। उसके मन में जो आता वह करता फिरता। देवी प्रसाद की मौत के बाद उसने अपना सिक्का जमाना शुरू कर दिया। फिर गाँव वालों ने सलाह कर के उन्हें ज़मींदारी छोड़ने के एवज़ में प्रधानी सौंप दी। हालात ने तब करवट बदली जब गाँव के नज़दीक एक क़त्ल हो गया और उसके जुर्म में लाला इमाम बख़्श को गिरफ्तार कर लिया गया।