मूत्री
स्टोरीलाइन
इस कहानी में देश विभाजन से ज़रा पहले की स्थिति को चित्रित किया गया है। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों के विरुद्ध मूत्रालय में अलग-अलग जुमले लिखे मिलते थे। मुसलमानों की बहन का पाकिस्तान मारा और हिंदुओं की माँ का अखंड हिन्दुस्तान मारा के नीचे लेखक ने दोनों की माँ का हिन्दुस्तान मारा लिख कर ये महसूस किया था कि एक लम्हे के लिए मूत्री की बदबू महक में तब्दील हो गई है।
कांग्रेस हाउस और जिन्ना हाल से थोड़े ही फ़ासले पर एक पेशाबगाह है जिसे बंबई में “मूत्री” कहते हैं। आस-पास के मुहल्लों की सारी ग़लाज़त इस तअफ़्फ़ुन भरी कोठड़ी के बाहर ढेरियों की सूरत में पड़ी रहती है। इस क़दर बदबू होती है कि आदमियों को नाक पर रूमाल रख कर बाज़ार से गुज़रना पड़ता है।
इस मूत्री में इस दफ़ा उसे मजबूरन जाना पड़ा... पेशाब करने के लिए नाक पर रूमाल रख कर, सांस बंद कर के, वो बदबूओं के इस मस्कन में दाख़िल हुआ, फ़र्श पर ग़लाज़त बुलबुले बन कर फट रही थी... दीवारों पर आज़ा-ए-तनासुल की मुहीब तस्वीरें बनी थीं... सामने कोयले के साथ किसी ने ये अल्फ़ाज़ लिखे हुए थे,“मुसलमानों की बहन का पाकिस्तान मारा।”
इन अल्फ़ाज़ ने बदबू की शिद्दत और भी ज़्यादा कर दी। वो जल्दी जल्दी बाहर निकल आया।
जिन्ना हाल और कांग्रेस हाउस दोनों पर गर्वनमेंट का क़ब्ज़ा है। लेकिन थोड़े ही फ़ासले पर जो मूत्री है, इसी तरह आज़ाद है।
अपनी ग़लाज़तें और उफ़ूनतें फैलाने के लिए... आसपास के मुहल्लों का कूड़ा करकट अब कुछ ज़्यादा ही ढेरियों की सूरत में बाहर पड़ा दिखाई देता है।
एक बार फिर उसे मजबूरन उस मूत्री में जाना पड़ा। ज़ाहिर है कि पेशाब करने के लिए। नाक पर रूमाल रख कर और सांस बंद कर के वो बदबुओं के इस घर में दाख़िल हुआ... फ़र्श पर पतले पाख़ाने की पपड़ियां जम रही थीं। दीवारों पर इंसान के औलाद पैदा करने वाले आज़ा की तादाद में इज़ाफ़ा हो गया था...
“मुसलमान की बहन का पाकिस्तान मारा,” के नीचे किसी ने मोटी पेंसिल से ये घिनौनी अल्फ़ाज़ तहरीर किए हुए थे, “हिंदुओं की माँ का अखंड हिंदुस्तान मारा।”
इस तहरीर ने मूत्री की बदबू में एक तेज़ाबी कैफ़ियत पैदा कर दी... वो जल्दी जल्दी बाहर निकल आया।
महात्मा गांधी की ग़ैर मशरूत रिहाई हुई। जिन्ना को पंजाब में शिकस्त हुई। जिन्ना हाल और कांग्रेस हाउस दोनों को शिकस्त हुई न रिहाई। उन पर गर्वनमेंट का और उसके थोड़े ही फ़ासले पर जो मूत्री है उस पर बदबू का क़ब्ज़ा जारी रहा... आसपास के मुहल्लों का कूड़ा करकट अब एक ढेर की सूरत में बाहर पड़ा रहता है।
तीसरी बार फिर उसे उस मूत्री में जाना पड़ा... पेशाब करने के लिए नहीं... नाक पर रूमाल रख कर और सांस बंद कर के वो ग़लाज़तों की इस कोठड़ी में दाख़िल हुआ... फ़र्श पर कीड़े चल रहे थे। दीवारों पर इंसान के शर्मनाक हिस्सों की नक़्क़ाशी करने के लिए अब कोई जगह बाक़ी नहीं रही थी...
“मुसलमानों की बहन का पाकिस्तान मारा,” और “हिंदूओं की माँ का अखंड हिंदुस्तान मारा” के अल्फ़ाज़ मद्धम पड़ गए थे। मगर उनके नीचे सफ़ेद चाक से लिखे हुए ये अल्फ़ाज़ उभर रहे थे।
“दोनों की माँ का हिंदुस्तान मारा।”
इन अल्फ़ाज़ ने एक लहज़े के लिए मूत्री की बदबू ग़ायब कर दी... वो जब आहिस्ता आहिस्ता बाहर निकला तो उसे यूं लगा कि उसे बदबूओं के इस घर में एक बेनाम सी महक आई थी। सिर्फ़ एक लहज़े के लिए।
- पुस्तक : سڑک کے کنارے
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