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पतझड़ की आवाज़

क़ुर्रतुलऐन हैदर

पतझड़ की आवाज़

क़ुर्रतुलऐन हैदर

स्टोरीलाइन

यह कहानी की मरकज़ी किरदार तनवीर फ़ातिमा की ज़िंदगी के तजुर्बात और ज़ेहनियत की अक्कासी करती है। तनवीर एक अच्छे परिवार की सुशिक्षित लड़की है लेकिन ज़िंदगी जीने का फ़न उसे नहीं आता। उसकी ज़िंदगी में एक के बाद एक तीन मर्द आते हैं। पहला मर्द खु़श-वक़्त सिंह है जो ख़ुद से तनवीर फ़ातिमा की ज़िंदगी में दाख़िल होता है। दूसरा मर्द फ़ारूक़, पहले खु़श-वक़्त सिंह के दोस्त की हैसियत से उससे परिचित होता है और फिर वही उसका सब कुछ बन जाता है। इसी तरह तीसरा मर्द वक़ार हुसैन है जो फ़ारूक़ का दोस्त बनकर आता है और तनवीर फ़ातिमा को दाम्पत्य जीवन की ज़ंजीरों में जकड़ लेता है। तनवीर फ़ातिमा पूरी कहानी में सिर्फ़ एक बार ही अपने भविष्य के बारे में कोई फ़ैसला करती है, खु़श-वक़्त सिंह से शादी न करने का। और यही फ़ैसला उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल साबित होता है क्योंकि वह अपनी ज़िंदगी में आए उस पहले मर्द खु़श-वक़्त सिंह को कभी भूल नहीं पाती।

सुब्ह मैं गली के दरवाज़े में खड़ी सब्ज़ी वाले से गोभी की क़ीमत पर झगड़ रही थी। ऊपर बावर्ची-ख़ाने में दाल चावल उबालने के लिए चढ़ा दिए थे। मुलाज़िम सौदा लेने के लिए बाज़ार जा चुका था। ग़ुस्ल-ख़ाने में वक़ार साहिब चीनी की चिलमची के ऊपर लगे हुए मद्धम आईने में अपनी सूरत देखते हुए गुनगुना रहे थे और शेव करते जाते थे। मैं सब्ज़ी वाले से बहस करने के साथ-साथ सोचने में मसरूफ़ थी कि रात के खाने के लिए क्या-क्या तैयार किया जाए। इतने में सामने एक कार आन कर रुकी। एक लड़की ने खिड़की से झाँका और फिर दरवाज़ा खोल कर बाहर उतर आई। मैं पैसे गिन रही थी। इसलिए मैंने उसे देखा। वो एक क़दम आगे बढ़ी। अब मैंने सर उठाकर उस पर नज़र डाली।

“अरे... तुम...!”, उसने हक्का-बक्का होकर कहा और वहीं ठिठक कर रह गई।

ऐसा लगा जैसे वो मुद्दतों से मुझे मुर्दा तसव्वुर कर चुकी है और अब मेरा भूत उसके सामने खड़ा है। उसकी आँखों में एक लहज़े के लिए जो दहशत मैंने देखी, उसकी याद ने मुझे बावला कर दिया है। मैं तो सोच-सोच के दीवानी हो जाऊँगी। ये लड़की (उसका नाम तक ज़हन में महफ़ूज़ नहीं और उस वक़्त मैंने झेंप के मारे उससे पूछा भी नहीं वर्ना वो कितना बुरा मानती) मेरे साथ दिल्ली के क्वीन मैरी में पढ़ती थी।

ये बीस साल पहले की बात है। मैं उस वक़्त कोई सत्रह साल की रही हूँगी। मगर मेरी सेहत इतनी अच्छी थी कि अपनी उ'म्र से कहीं बड़ी मा'लूम होती थी और मेरी ख़ूबसूरती की धूम मचनी शुरू’ हो चुकी थी। दिल्ली में क़ाएदा था कि लड़के-वालियाँ स्कूल-स्कूल घूम के लड़कियाँ पसंद करती फिरती थीं और जो लड़की पसंद आती थी, उसके घर ‘रुक़आ’ भिजवा दिया जाता था।

उसी ज़माने में मुझे मा'लूम हुआ कि उस लड़की की माँ-ख़ाला वग़ैरह ने मुझे पसंद कर लिया है (स्कूल डे के जलसे के रोज़ देखकर) और अब वो मुझे बहू बनाने पर तुली बैठी हैं। ये लोग नूर-जहाँ रोड पर रहते थे और लड़का हाल ही में रिज़र्व बैंक आफ़ इंडिया में दो डेढ़ सौ रुपये माहवार का नौकर हुआ था। चुनाँचे ‘रुक़आ’ मेरे घर भिजवाया गया। मगर मेरी अम्माँ जान मेरे लिए बड़े ऊँचे ख़्वाब देख रही थीं। मेरे वालिदैन दिल्ली से बाहर मेरठ में रहते थे और अभी मेरे ब्याह का कोई सवाल ही पैदा होता था लिहाज़ा वो पैग़ाम फ़िल-फ़ौर ना-मंज़ूर कर दिया गया।

उसके बा'द उस लड़की ने कुछ अ’र्से मेरे साथ कॉलेज में भी पढ़ा। फिर उसकी शादी हो गई और वो कॉलेज छोड़कर चली गई। आज इतने अ’र्से बा'द लाहौर की माल रोड के पिछवाड़े इस गली में मेरी उससे मुठ-भेड़ हुई। मैंने उससे कहा…, “ऊपर आओ... चाय-वाय पियो। फिर इत्मीनान से बैठ कर बातें करेंगे।” लेकिन उसने कहा, “मैं जल्दी में किसी ससुराली रिश्तेदार का मकान तलाश करती हुई इस गली में निकली थी। इंशाअल्लाह फिर कभी ज़रूर आऊँगी।”

इसके बा'द वहीं खड़े-खड़े उसने जल्दी-जल्दी नाम-ब-नाम सारी पुरानी दोस्तों के क़िस्से सुनाए। कौन कहाँ है और क्या कर रही है। सलीमा ब्रिगेडियर फ़लाँ की बीवी है। चार बच्चे हैं। फ़र्खंदा का मियाँ फॉरेन सर्विस में है। उसकी बड़ी लड़की लंदन में पढ़ रही है। रेहाना फ़लाँ कॉलेज में प्रिंसिपल है। सादिया अमरीका से ढेरों डिग्रियाँ ले आई है और कराची में किसी ऊँची मुलाज़िमत पर बिराजमान है। कॉलेज की हिंदू साथियों के हालात से भी वो बा-ख़बर थी। प्रभा का मियाँ इंडियन नेवी में कमोडोर है। वो बंबई में रहती है। सरला ऑल इंडिया रेडियो में स्टेशन डायरेक्टर है और जुनूबी हिंद में कहीं तैनात है। लोतिका बड़ी मशहूर आर्टिस्ट बन चुकी है और नई दिल्ली में उसका स्टूडियो है वग़ैरह-वग़ैरह। वो ये सब बातें कर रही थी मगर उसकी आँखों की उस दहशत को मैं भूल सकी।

उसने कहा..., “मैं सादिया, रेहाना वग़ैरह जब भी कराची में इकट्ठे होते हैं तुम्हें बराबर याद करते हैं।”

“वाक़ई’...?” मैंने खोखली हँसी हँसकर पूछा।

मा’लूम था मुझे किन अल्फ़ाज़ में याद किया जाता होगा। पिछली-पाइयाँ, अरे क्या ये लोग मेरी सहेलियाँ थीं? औरतें दर-अस्ल एक दूसरे के हक़ में चुड़ैलें होती हैं। कटनियाँ, हर्राफ़ाएँ, उसने मुझसे ये भी नहीं दरियाफ़्त किया कि मैं यहाँ नीम-तारीक सुनसान गली में इस खँडर ऐसे मकान के शिकस्ता ज़ीने पर क्या कर रही हूँ। उसे मा’लूम था।

औरतों की इंटेलिजेंस सर्विस इतनी ज़बरदस्त होती है कि इंटरपोल भी उसके आगे पानी भरे और फिर मेरा क़िस्सा तो अलम नशरह है। मेरी हैसियत कोई क़ाबिल-ए-ज़िक्र नहीं। गुमनाम हस्ती हूँ। इसलिए किसी को मेरी पर्वा नहीं। ख़ुद मुझे भी अपनी पर्वा नहीं।

मैं तनवीर फ़ातिमा हूँ। मेरे अब्बा मेरठ के रहने वाले थे। मा’मूली हैसियत के ज़मींदार थे। हमारे यहाँ बड़ा सख़्त पर्दा किया जाता था। ख़ुद मेरा मेरे चचा-ज़ाद, फूफी-ज़ाद भाइयों से पर्दा था। मैं बे-इंतिहा लाडों की पली चहेती लड़की थी। जब मैंने स्कूल में बहुत से वज़ीफ़े हासिल कर लिए तो मैट्रिक करने के लिए ख़ास-तौर पर मेरा दाख़िला क्वीन मैरी स्कूल में कराया गया। इंटर के लिए मैं अलीगढ़ भेज दी गई। अलीगढ़ गर्ल्स कॉलेज का ज़माना मेरी ज़िंदगी का बेहतरीन दौर था, कैसा ख़्वाब-आगीं दौर था। मैं जज़्बात-परस्त नहीं लेकिन अब भी जब कॉलेज का सेहन, रविशें, घास के ऊँचे पौदे दरख़्तों पर झुकी बारिश, नुमाइश के मैदान में घूमते हुए काले बुर्क़ों के परे होस्टल आग के पतले-पतले बरामदों छोटे-छोटे कमरों की वो शदीद घरेलू फ़ज़ाएँ याद आती हैं तो जी डूब सा जाता है।

एम.एस.सी. के लिए मैं फिर दिल्ली गई। यहाँ कॉलेज में मेरे साथ यही सब लड़कियाँ पढ़ती थीं। रेहाना, सादिया, प्रभा, फ़लानी-ढमाकी, मुझे लड़कियाँ कभी पसंद आईं। मुझे दुनिया में ज़ियादा-तर लोग पसंद नहीं आए। बेशतर लोग महज़ तज़य्यु’ औक़ात हैं। मैं बहुत मग़रूर थी। हुस्न ऐसी चीज़ है कि इंसान का दिमाग़ ख़राब होते देर नहीं लगती। फिर मैं तो ब-क़ौल शख़्से लाखों में एक थी। शीशे का ऐसा झलकता हुआ रंग सुर्ख़ी माइल सुनहरे बाल। बेहद शानदार डील-डौल। बनारसी सारी पहन लूँ तो बिल्कुल कहीं की महारानी मा’लूम होती थी।

ये जंग का ज़माना था या शायद जंग उसी साल ख़त्म हुई थी। मुझे अच्छी तरह याद नहीं। बहर-हाल दिल्ली पर बहार आई हुई थी... करोड़पती कारोबारियों और हुकूमत-ए-हिन्द के आ’ला अफ़सरों की लड़कियाँ... हिंदू, सिख, मुसलमान... लंबी-लंबी मोटरों में उड़ी-उड़ी फिरतीं, नित-नई पार्टियाँ, जलसे हंगामे, आज इंद्रप्रस्थ कॉलेज में ड्रामा है, कल मिरांडा हाऊस में, परसों लेडी इरविन कॉलेज में कॉन्सर्ट है।

लेडी हार्डिंग और सेंट स्टीफ़न कॉलेज... चेम्सफ़ोर्ड क्लब रौशन-आरा, इम्पिरियल जिम-ख़ाना ग़रज़ कि हर तरफ़ अलिफ़-लैला के बाब बिखरे पड़े थे। हर जगह नौजवान फ़ौजी अफ़सरों और सिविल सर्विस के बिन ब्याहे ओ’हदे-दारों के परे डोलते नज़र आते। एक हंगामा था। प्रभा और सरला के हमराह एक रोज़ में दिलजीत कौर के यहाँ जो एक करोड़पती कंट्रैक्टर की लड़की थी, किंग ऐडवर्ड रोड की एक शानदार कोठी में गार्डन पार्टी के लिए मदऊ’ थी।

यहाँ मेरी मुलाक़ात मेजर ख़ुशवक़्त सिंह से हुई। ये झांसी की तरफ़ का चौहान राजपूत था। लंबा-तड़ंगा काला भुजंग लाँबी-लाँबी ऊपर को मुड़ी हुई नोकीली मूँछें, बेहद चमकीले और ख़ूबसूरत दाँत, हँसता तो बहुत अच्छा लगता। ग़ालिब का परस्तार था, बात-बात पर शे’र पढ़ता, क़हक़हे लगाता और झुक-झुक कर बेहद अख़लाक़ से सबसे बातें करता। उसने हमको दूसरे रोज़ सिनेमा चलने की दा’वत दी।

सरला, प्रभा वग़ैरह एक बद-दिमाग़ लड़कियाँ थीं और ख़ासी क़दामत पसंद वो लड़कों के साथ बाहर घूमने बिल्कुल नहीं जाती थीं। ख़ुशवक़्त सिंह दिलजीत के भाई का दोस्त था। मेरी समझ में नहीं आया कि उसे क्या जवाब दूँ कि इतने में सरला ने चुपके से कहा..., “ख़ुशवक़्त सिंह के साथ हरगिज़ सिनेमा मत जाना... सख़्त लोफ़र लड़का है…”

मैं चुप हो गई। उस ज़माने में नई दिल्ली की दो एक आवारा लड़कियों के क़िस्से बहुत मशहूर हो रहे थे और मैं सोच-सोच कर डरा करती थी। शरीफ़ घरानों की लड़कियाँ अपने माँ-बाप की अलिफ़ आँखों में धूल झोंक कर किस तरह लोगों के साथ रंग-रलियाँ मनाती हैं। होस्टल में हम अक्सर इस क़िस्म की लड़कियों के लिए क़यास-आराइयाँ किया करते, ये बड़ी अ’जीब और पुर-असरार हस्तियाँ मा’लूम होतीं। हालाँकि देखने में वो भी हमारी तरह ही की लड़कियाँ थीं। साड़ियों और शलवारों में मलबूस। तरह-दार ख़ूबसूरत पढ़ी लिखी...!

“लोग बदनाम कर देते हैं जी…”, सादिया दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाल कर कहती…

“अब ऐसा भी क्या है। दर-अस्ल हमारी सोसाइटी इस क़ाबिल ही नहीं हुई कि ता’लीम-याफ़्ता लड़कियों को हज़्म कर सके…”, सरला कहती।

“होता ये है कि लड़कियाँ एहसास-ए-तवाज़ुन खो बैठती हैं।”, रेहाना राय देती। बहर-हाल किसी तरह यक़ीं आता कि ये हमारी जैसी हमारे साथ की चंद लड़कियाँ ऐसी-ऐसी ख़ौफ़नाक हरकतें किस तरह करती हैं।

दूसरी शाम मैं लेबोरेट्री की तरफ़ जा रही थी कि निकल्सन मेमोरियल के क़रीब एक क़िरमिज़ी रंग की लंबी सी कार आहिस्ता से रुक गई। उसमें से ख़ुशवक़्त सिंह ने झाँका और अँधेरे में उसके ख़ूबसूरत दाँत झिलमिलाए।

“अजी हज़रत! यूँ कहिए कि आप अपना अपॉइंटमेंट भूल गईं!”

“जी...!”, मैंने हड़बड़ा कर कहा।

“हुज़ूर-ए-वाला... चलिए मेरे साथ फ़ौरन। ये शाम का वक़्त लेबोरेट्री में घुस कर बैठने का नहीं है। इतना पढ़ कर क्या कीजिएगा...?”

मैंने बिल्कुल ग़ैर-इरादी तौर पर चारों तरफ़ देखा और कार में दुबक कर बैठ गई।

हमने कनॉट प्लेस जाकर एक अंग्रेज़ी फ़िल्म देखी। उसके अगले रोज़ भी। उसके बा'द एक हफ़्ते तक मैंने ख़ूब-ख़ूब सैरें उसके साथ कीं। वो मेडेन्ज़ में ठहरा हुआ था।

उस हफ़्ते के आख़िर तक मैं मेजर ख़ुशवक़्त सिंह की मिस्ट्रेस बन चुकी थी।

मैं लिटरेरी नहीं हूँ, मैंने चीनी, जापानी, रूसी, अंग्रेज़ी या उर्दू शाइ'री का मुताला' नहीं किया। अदब पढ़ना मेरे नज़दीक वक़्त ज़ाए’ करना है... पंद्रह बरस की उ'म्र से साईंस मेरा ओढ़ना-बिछौना रहा है।

मैं नहीं जानती कि माबा’द-उल-तबीआ'ती तसव्वुरात क्या होते हैं। Mystic कशिश के क्या मआ’नी हैं। शाइ'री और फ़लसफ़े के लिए मेरे पास फ़ुर्सत जब थी अब है। मैं बड़े-बड़े मुबहम ग़ैर-वाज़ेह और पुर-असरार अल्फ़ाज़ भी इस्तिमाल नहीं कर सकती। बहर-हाल पंद्रह रोज़ के अंदर-अंदर वाक़िआ’ भी कमो-बेश कॉलेज में सबको मा'लूम हो चुका था। लेकिन मुझमें अपने अंदर हमेशा से बड़ी अ’जीब सी ख़ुद-ए’तिमादी थी। मैंने अब पर्वा नहीं की।

पहले भी मैं लोगों से बोल-चाल बहुत कम रखती थी। सरला वग़ैरह का गिरोह अब मुझे ऐसी नज़रों से देखता गोया मैं मिर्रीख़ से उतर कर आई हूँ या मेरे सर पर सींग हैं। डाइनिंग हाल में मेरे बाहर जाने के बा'द घंटों मेरे क़िस्से दोहराए जाते। अपनी इंटेलिजेंस सर्विस के ज़रीए’ मेरे और ख़ुशवक़्त सिंह के बारे में उनको पल-पल की ख़बर रहती। हम लोग शाम को कहाँ गए... रात नई दिल्ली के कौन से बाल रुम में नाचे (ख़ुशवक़्त मा’र्के का डांसर था। उसने मुझे नाचना भी सिखा दिया था) ख़ुशवक़्त ने मुझे क्या-क्या तहाइफ़ कौन-कौन सी दुकानों से ख़रीद कर दिए।

ख़ुशवक़्त सिंह मुझे मारता बहुत था और मुझसे इतनी मुहब्बत करता था जो आज तक दुनिया में किसी मर्द ने किसी औरत से की होगी। कई महीने गुज़र गए। मेरे एम.एस.सी. प्रीवियस के इमतिहान सर पर गए और मैं पढ़ने में मसरूफ़ हो गई। इमतिहनात के बा'द उसने कहा..., “जान-ए-मन… दिल-रुबा! चलो किसी ख़ामोश से पहाड़ पर चलें... सोलन, डलहौज़ी, लैंसडाउन…”

मैं चंद रोज़ के लिए मेरठ गई और अब्बा से ये कह कर (अम्माँ-जान का जब मैं थर्ड इयर में थी तो इंतिक़ाल हो गया था) दिल्ली वापस गई कि फाइनल इयर के लिए बेहद पढ़ाई करनी है, शुमाली हिंद के पहाड़ी मक़ामात पर बहुत से शनासाओं के मिलने का इमकान था इसलिए हम दूर जुनूब में ऊटी चले गए। वहाँ महीना भर रहे।

ख़ुशवक़्त की छुट्टी ख़त्म हो गई तो दिल्ली वापस आकर तीमारपुर के एक बंगले में टिक गए। कॉलेज खुलने से एक हफ़्ता क़ब्ल ख़ुशवक़्त की और मेरी बड़ी ज़बरदस्त लड़ाई हुई। उसने मुझे ख़ूब मारा। इतना मारा कि मेरा सारा चेहरा लहू-लुहान हो गया और मेरी बाँहों में और पिंडलियों पर नील पड़ गए। लड़ाई की वज्ह उसकी वो मुर्दार ईसाई मंगेतर थी जो जाने कहाँ से टपक पड़ी थी और सारे में मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलती फिर रही थी।

अगर उसका बस चलता तो मुझे कच्चा चबा जाती। ये चार-सौ बीस लड़की जंग के ज़माने में फ़ौज में थी और ख़ुशवक़्त को बर्मा के महाज़ पर मिली थी। ख़ुशवक़्त ने जाने किस तरह उससे शादी का वा’दा कर लिया था। लेकिन मुझसे मिलने के बा'द अब वो उसकी अँगूठी वापस करने पर तुला बैठा था। उस रात तीमारपुर के उस सुनसान बँगले में उसने मेरे आगे हाथ जोड़े और रो-रो कर मुझसे कहा कि मैं उससे ब्याह कर लूँ वर्ना वो मर जाएगा। मैंने कहा, हरगिज़ नहीं। क़यामत तक नहीं। मैं आ’ला ख़ानदान सय्यद-ज़ादी भला उस काले तंबाकू के पिंडे हिंदू जाट से ब्याह करके ख़ानदान के माथे पर कलंक का टीका लगाती। मैं तो उस हसीन-ओ-जमील किसी बहुत ऊँचे मुसलमान घराने के चश्म-ओ-चराग़ के ख़्वाब देख रही थी जो एक रोज़ देर या सवेर बारात लेकर मुझे ब्याहने आएगा। हमारा आरसी मुसहफ़ होगा। मैं सेहरे जल्वे से रुख़्सत हो कर उसके घर जाऊँगी। बिजली बसंत ननदें दरवाज़े पर दहलीज़ रोक कर अपने भाई से नेग के लिए झगड़ेंगी। मिरासिनें ढोलक लिए खड़ी होंगी। क्या-क्या कुछ होगा। मैंने क्या हिंदू मुस्लिम शादियों का हश्र देखा नहीं था। कईयों ने तरक़्क़ी-पसंद या जज़्बा-ए-इ'श्क़ के जोश में आकर हिंदुओं से ब्याह रचाए और साल भर के अंदर जूतियों में दाल बटी। बच्चों का जो हश्र ख़राब हुआ वो अलग... इधर के रहे उधर के।

मेरे इंकार पर ख़ुशवक़्त ने जूते-लात से मार-मार कर मेरा भुरकस निकाल दिया और तीसरे दिन उस डायन काली बला कैथरीन धरम दास के साथ आगरे चला गया जहाँ उसने उस बदज़ात लड़की से सिविल मैरिज कर ली।

जब मैं नई टर्म के आग़ाज़ पर होस्टल पहुँची तो इस हुलिए से कि मेरे सर और चेहरे पर पट्टी बँधी हुई थी। अब्बा को मैंने लिख भेजा कि लेबोरेट्री में एक तजुर्बा कर रही थी, एक ख़तरनाक माद्दा भक से उड़ा और उससे मेरा मुँह थोड़ा सा जल गया। अब बिल्कुल ठीक हूँ। फ़िक्र कीजिए।

लड़कियों को तो सारा क़िस्सा पहले ही मा’लूम हो चुका था। लिहाज़ा उन्होंने अख़लाक़न मेरी ख़ैरियत भी पूछी। इतने बड़े स्कैंडल के बा'द मुझे होस्टल में रहने की इजाज़त दी जाती मगर होस्टल की वार्डन ख़ुशवक़्त सिंह की बहुत दोस्त थी। इसलिए सब ख़ामोश रहे। इसके इ’लावा किसी के पास किसी तरह का सबूत भी था। कॉलेज की लड़कियों को लोग यूँ भी ख़्वाह-म-ख़ाह बदनाम करने पर तुले रहते हैं।

मुझे वो वक़्त अच्छी तरह याद है जैसे कल की बात हो। सुब्ह के दस ग्यारह बजे होंगे। रेलवे स्टेशन से लड़कियों के ताँगे आकर फाटक में दाख़िल हो रहे थे। होस्टल के लॉन पर बरगद के दरख़्त के नीचे लड़कियाँ अपना-अपना अस्बाब उतरवा कर रखवा रही थीं। बड़ी सख़्त चिल-पौं मचा रखी थी। जिस वक़्त मैं अपने ताँगे से उतरी वो मेरा ढाटे से बँधा हुआ सफ़ेद चेहरा देखकर ऐसी हैरत-ज़दा हुईं जैसे सबको साँप सूँघ गया हो।

मैंने सामान चौकीदार के सर पर रखवाया और अपने कमरे की तरफ़ चली गई। दोपहर को जब मैं खाने की मेज़ पर आन कर बैठी तो उन क़तामाओं ने मुझसे इस अख़लाक़ से इधर-उधर की बातें शुरू’ कीं जिनसे अच्छी तरह ये ज़ाहिर हो जाए कि मेरे हादिसे की अस्ल वज्ह जानती हैं और मुझे नदामत से बचाने के लिए उसका तज़किरा ही नहीं कर रही हैं। उनमें से एक ने, जो उस चंडाल चौकड़ी की गुरु और उन सबकी उस्ताद थी रात को खाने की मेज़ पर फ़ैसला सादर किया कि मैं नफ़सियात की इस्तिलाह में Nympho-Maniac हूँ (मुझे मेरी जासूस के ज़रिए' ये इ’त्तिला फ़ौरन ऊपर पहुँच गई जहाँ मैं उस वक़्त अपने कमरे में खिड़की के पास टेबल लैम्प लगाए पढ़ाई में मसरूफ़ थी) और इस तरह की बातें तो अब आ’म थीं कि एक मछली सारे जल को गंदा करती है। इसीलिए तो लड़कियों की बेपर्दगी आज़ादी ख़तरनाक और आ’ला ता’लीम बदनाम है वग़ैरह-वग़ैरह।

मैं अपनी हद तक सौ फ़ीसदी उन आरा से मुत्तफ़िक़ थी। मैं ख़ुद सोचती थी कि बा’ज़ अच्छी-ख़ासी भली-चंगी आ’ला ता’लीम याफ़्ता लड़कियाँ आवारा क्यों हो जाती हैं। एक थ्योरी थी कि वही लड़कियाँ आवारा होती हैं जिनका ‘आई-क्यू’ बहुत कम होता है। ज़हीन इंसान कभी अपनी तबाही की तरफ़ जान-बूझ कर क़दम उठाएगा। मगर मैंने तो अच्छी ख़ासी समझदार तेज़-ओ-तर्रार लड़कियों को लोफ़री करते देखा था। दूसरी थ्योरी थी कि सैर-ओ-तफ़रीह, रुपये पैसे, ऐ'श-ओ-आसाइश की ज़िंदगी क़ीमती तहाइफ़ का लालच, रूमान की तलाश ऐडवेंचर की ख़्वाहिश या महज़ उकताहट या पर्दे की क़ैद-ओ-बंद के बा'द आज़ादी की फ़िज़ा में दाख़िल हो कर पुरानी अक़्दार से बग़ावत। इस सूरत-ए-हाल की चंद वजूह हैं। ये सब बातें ज़रूर होंगी वर्ना और क्या वज्ह हो सकती है?

मैं फर्स्ट टर्मिनल इम्तिहान से फ़ारिग़ हुई थी कि ख़ुशवक़्त फिर आन पहुँचा। उसने मुझे लेबोरेट्री फ़ोन किया कि मैं नरूला में छः बजे उससे मिलूँ। मैंने ऐसा ही किया। वो कैथरीन को अपने माँ-बाप के यहाँ छोड़कर सरकारी काम से दिल्ली आया था। इस मर्तबा हम हवाई जहाज़ से एक हफ़्ते के लिए बंबई चले गए। इसके बा'द उससे हर दूसरे-तीसरे महीने मिलना होता रहा। एक साल निकल गया। अब के से जब वो दिल्ली आया तो उसने अपने एक जिगरी दोस्त को मुझे लेने के लिए मोटर लेकर भेजा क्योंकि वो लखनऊ से लाहौर जाते हुए पालमपुर चंद घंटे के लिए ठहरा था। ये दोस्त दिल्ली के एक बड़े मुसलमान ताजिर का लड़का था। लड़का तो ख़ैर नहीं कहना चाहिए, उस वक़्त भी वो चालीस के पेटे में रहा होगा। बीवी-बच्चों वाला। ताड़ का सा क़द, बेहद ग़लत अंग्रेज़ी बोलता था। काला, बद-क़ता'। बिल्कुल चिड़ीमार की शक्ल, होश-सिफ़त।

ख़ुशवक़्त अब की मर्तबा दिल्ली से गया तो फिर कभी वापस आया क्योंकि अब मैं फ़ारूक़ की मिस्ट्रेस बन चुकी थी। फ़ारूक़ के साथ अब मैं उसकी मंगेतर की हैसियत से बा-क़ाएदा दिल्ली की ऊँची सोसाइटी में शामिल हो गई।

मुसलमानों में तो चार शादियाँ जाएज़ हैं, लिहाज़ा ये कोई बहुत बुरी बात थी। या’नी मज़हब के नुक़्ता-ए-निगाह से कि वो अपनी अनपढ़, अधेड़ उ'म्र की पर्दे की बूबू की मौजूदगी में एक ता’लीम-याफ़्ता लड़की से शादी करना चाहता था जो चार आदमियों में ढंग से उठ बैठ सके और फिर दौलत-मंद तबक़े में सब कुछ जाएज़ है।

ये तो हमारी मिडिल क्लास के क़वानीन हैं कि ये करो वो करो... तवील छुट्टियों के ज़माने में फ़ारूक़ ने भी मुझे ख़ूब सैरें कराईं। कलकत्ता, लखनऊ, अजमेर कौन जगह थी जो मैंने उसके साथ देखी। उसने मुझे हीरे-जवाहरात के गहनों से लाद दिया। अब्बा को लिख भेजती थी कि यूनीवर्सिटी के तालिब-इ’ल्मों के हमराह टूर पर जा रही हूँ या फ़लाँ जगह एक साईंस कान्फ़्रैंस में शिरकत के लिए मुझे बुलाया गया है लेकिन साथ ही साथ मुझे अपना ता’लीमी रिकार्ड ऊँचा रखने की धुन थी। फाईनल इम्तिहान में मैंने बहुत ही ख़राब पर्चे किए और इम्तिहान ख़त्म होते ही घर चली गई।

उसी ज़माने में दिल्ली में गड़-बड़ शुरू’ हुई और फ़सादात का भूंचाल गया। फ़ारूक़ ने मुझे मेरठ ख़त लिखा कि तुम फ़ौरन पाकिस्तान चली जाओ। मैं तुमसे वहीं मिलूँगा। मेरा पहले ही से ये इरादा था। अब्बा भी बेहद परेशान थे और यही चाहते थे कि उन हालात में अब मैं इंडिया में रहूँ जहाँ शरीफ़ मुसलमान लड़कियों की इ'ज़्ज़तें मुस्तक़िल ख़तरे में हैं। पाकिस्तान अपना इस्लामी मुल्क था। उसकी बात ही क्या थी।

अब्बा जाएदाद वग़ैरह की वज्ह से फ़िलहाल तर्क-ए-वतन कर सकते थे। मेरे भाई दोनों बहुत छोटे-छोटे थे और अम्माँ-जान के इंतिक़ाल के बा'द अब्बा ने उनको मेरी ख़ाला के पास हैदराबाद दकन भेज दिया था। मेरा रिज़ल्ट निकल चुका था और मैं थर्ड डिवीज़न में पास हुई थी। मेरा दिल टूट गया। जब बलवों का ज़ोर ज़रा कम हुआ तो मैं हवाई जहाज़ से लाहौर गई। फ़ारूक़ मेरे साथ आया। उसने ये प्रोग्राम बनाया था कि अपने कारोबार की एक शाख़ पाकिस्तान में क़ाएम करके लाहौर उसका हेड ऑफ़िस रखेगा। मुझे उसका मालिक बनाएगा और वहीं मुझसे शादी कर लेगा। वो दिल्ली से हिजरत नहीं कर रहा था क्योंकि उसके बाप बड़े अहरारी ख़यालात के आदमी थे। प्लान ये था कि वो हर दूसरे-तीसरे महीने दिल्ली से लाहौर आता रहेगा।

लाहौर में अफ़रा-तफ़री थी हालाँकि एक से एक आ’ला कोठी अलाट हो सकती थी मगर फ़ारूक़ यहाँ किसी को जानता था। बहर-हाल संत नगर में एक छोटा सा मकान मेरे नाम अलाट करा के उसने मुझे वहाँ छोड़ दिया और मेरी दोसराथ के लिए अपने एक दूर के रिश्तेदार कुन्बे को मेरे पास ठहरा दिया जो मुहाजिर हो के लाहौर आए थे और मारे-मारे फिर रहे थे।

मैं ज़िंदगी की इस यक-ब-यक तबदीली से इतनी हक्का-बक्का थी कि मेरी समझ में आता था कि क्या से क्या हो गया। कहाँ ग़ैर मुनक़सिम हिन्दुस्तान की वो भरपूर दिलचस्प रंगा-रंग दुनिया कहाँ 1948 के लाहौर का वो तंग-ओ-तारीक मकान। ग़रीब-उल-वतनी… अल्लाहू-अकबर... मैंने कैसे-कैसे दिल हिला देने वाले ज़माने देखें हैं।

मैं इतनी ख़ाली-उल-ज़हन हो चुकी थी कि मैंने तलाश-ए-मुलाज़िमत की भी कोई कोशिश की। रुपये की तरफ़ से फ़िक्र थी क्योंकि फ़ारूक़ मेरे नाम दस हज़ार रुपया जमा' करा गया था। (सिर्फ़ दस हज़ार। वो ख़ुद करोड़ों का आदमी था मगर उस वक़्त मेरी समझ में कुछ आता था। अब भी नहीं आता।)

दिन गुज़रते गए। मैं सुब्ह से शाम तक पलंग पर पड़ी फ़ारूक़ के रिश्ते की ख़ाला या नानी जो कुछ भी वो बड़ी-बी थीं। उनसे उनकी हिजरत के मसाइब की दास्तान और उनकी साबिक़ा इमारात के क़िस्से सुना करती और पान पे पान खाती या उनकी मैट्रिक में पढ़ने वाली बेटी को अलजबरा, ज्योमेट्री सिखलाया करती। उनका बेटा फ़ारूक़ की बरा-ए-नाम बिज़नस की देख-भाल कर रहा था।

फ़ारूक़ साल में पाँच-छः चक्कर लगा लेता। अब लाहौर की ज़िंदगी रफ़्ता-रफ़्ता नॉर्मल होती जा रही थी। उसकी आमद से मेरे दिन कुछ रौनक़ के कटते। उसकी ख़ाला बड़े एहतिमाम से दिल्ली के खाने उसके लिए तैयार करतीं। मैं माल के हेयर ड्रेसर के यहाँ जाकर अपने बाल सेट करवाती। शाम को हम दोनों जिम-ख़ाना क्लब चले जाते और वहाँ एक कोने की मेज़ पर बियर का गिलास सामने रखे फ़ारूक़ मुझे दिल्ली के वाक़िआ'त सुनाता। वो बे-तकान बोले चला जाता। या फिर दफ़अ’तन चुप हो कर कमरे में आने वाली अजनबी सूरतों को देखता रहता।

उसने शादी का कभी कोई ज़िक्र नहीं किया। मैंने भी उससे नहीं कहा। मैं अब उकता चुकी थी, किसी चीज़ से कोई फ़र्क़ पड़ता। जब वो दिल्ली वापस चला जाता तो मैं हर पंद्रहवें दिन अपनी ख़ैरियत का ख़त और उसके कारोबार का हाल लिख भेजती और लिख देती कि अब की दफ़ा’ आए तो कनॉट प्लेस या चाँदनी-चौक की फ़लाँ दुकान से फ़लाँ-फ़लाँ क़िस्म की साड़ियाँ लेता आए क्योंकि पाकिस्तान में अच्छी साड़ियाँ ना-पैद हैं। एक रोज़ मेरठ से चचा मियाँ का ख़त आया कि अब्बा का इंतिक़ाल हो गया।

जब अहमद-ए-मुर्सल रहे कौन रहेगा।

मैं जज़्बात से वाक़िफ़ नहीं हूँ मगर बाप मुझ पर जान छिड़कते थे। उनकी मौत का मुझे सख़्त सदमा हुआ। फ़ारूक़ ने मुझे बड़े प्यार के दिलासे भरे ख़त लिखे तो ज़रा ढारस बँधी। उसने लिखा…, नमाज़ पढ़ा करो बहुत बुरा वक़्त है। दुनिया पर काली आँधी चल रही है। सूरज डेढ़ बलम पर आया चाहता है। पल का भरोसा नहीं। सारे कारोबारियों की तरह वो भी बड़ा सख़्त मज़हबी और तवह्हुम-परस्त आदमी था। पाबंदी से अजमेर शरीफ़ जाता…, नुजूमियों, रम्मालों, पंडितों-सयानों, पीरों-फ़क़ीरों, अच्छे और बुरे शुगूनों ख़्वाबों की ता’बीर ग़रज़ कि हर चीज़ का क़ाइल था। एक महीना नमाज़ पढ़ी। मगर जब मैं सज्दे में जाती तो दिल चाहता ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से हँसूँ।

मुल्क में साईंस की ख़वातीन लैक्चरारों की बड़ी ज़बरदस्त माँग थी। जब मुझे एक मक़ामी कॉलेज वालों ने बेहद मजबूर किया तो मैंने पढ़ाना शुरू’ कर दिया। हालाँकि टीचरी करने से मुझे सख़्त नफ़रत है। कुछ अ’र्से बा'द मुझे पंजाब के एक दूर उफ़्तादा ज़िले के गर्ल्स कॉलेज में बुला लिया गया। कई साल तक मैंने वहाँ काम किया।

मुझसे मेरी तालिब-इ’ल्म लड़कियाँ अक्सर पूछतीं, “हाय अल्लाह मिस तनवीर। आप इतनी प्यारी सी हैं। आप अपने करोड़पती मंगेतर से शादी क्यों नहीं करतीं?”

इस सवाल का ख़ुद मेरे पास कोई जवाब था। ये नया मुल्क था नये लोग, नया मुआ’शरा। यहाँ किसी को मेरे माज़ी का इ’ल्म था। कोई भी भला-मानस मुझसे शादी करने के लिए तैयार हो सकता था (लेकिन भले-मानस, ख़ुश-शक्ल, सीधे-सादे शरीफ़-ज़ादे मुझे पसंद ही नहीं आते थे, मैं क्या करती?) दिल्ली के क़िस्से दिल्ली में रह गए। और फिर मैंने तो ये देखा है कि एक से एक हर्ऱाफ़ा लड़कियाँ अब ऐसी पारसा बनी हुई हैं कि देखा ही कीजिए। ख़ुद ऐडिथ हरी राम और रानी ख़ान की मिसाल मेरे सामने मौजूद है।

अब फ़ारूक़ भी कभी-कभी आता। हम लोग इस तरह मिलते गोया बीसियों बरस के पुराने शादी-शुदा मियाँ-बीवी हैं जिनके पास सारे नये मौज़ू' ख़त्म हो चुके हैं। अब सुकून और आराम और ठहराव का वक़्त है, फ़ारूक़ की बेटी की हाल ही में दिल्ली में शादी हुई है। उसका लड़का ऑक्सफ़ोर्ड जा चुका है। बीवी को मुस्तक़िल दमा रहता है। फ़ारूक़ ने अपने कारोबार की शाख़ें बाहर के कई मुल्कों में फैला दी हैं। नैनीताल में नया बंगला बनवा रहा है। फ़ारूक़ अपने ख़ानदान के क़िस्से कारोबार के मुआ’मलात मुझे तफ़सील से सुनाया करता और मैं उसके लिए पान बनाती रहती।

एक मर्तबा मैं छुट्टियों में कॉलेज से लाहौर आई तो फ़ारूक़ के एक पुराने दोस्त सय्यद वक़ार हुसैन ख़ान से मेरी मुलाक़ात हुई। ये भी अपने पुराने वक़्त के अकेले थे और कुछ कम-कम रू थे। दराज़ क़द, मोटे-ताज़े सियाह तवा ऐसा रंग, उ'म्र में पैंतालीस के लगभग। अच्छे-ख़ासे देव-ज़ाद मा’लूम होते। उनको मैंने पहली मर्तबा नई दिल्ली में देखा था जहाँ उनका डांसिंग स्कूल था। ये रामपुर के एक शरीफ़ घराने के इकलौते फ़र्ज़ंद थे। बचपन में घर से भाग गए। सर्कस, कार्निवाल और थियेटर कंपनियों के साथ मुल्कों-मुल्कों में घूमे। सिंगापुर, हांगकांग, शंघाई, लंदन, जाने कहाँ-कहाँ। अन-गिनत क़ौमियतों और नस्लों की औरतों से वक़्तन-फ़-वक़्तन शादियाँ रचाईं।

उनकी मौजूदा बीवी उड़ीसा के एक मारवाड़ी महाजन की लड़की थी जिसको ये कलकत्ते से उड़ा लाए थे। बारह-पंद्रह साल क़ब्ल मैंने उसे दिल्ली में देखा था। साँवली सलोनी सी, पस्ता-कद लड़की थी। मियाँ की बद-सुलूकियों से तंग आकर इधर-उधर भाग जाती। लेकिन चंद रोज़ के बा'द फिर वापस मौजूद। ख़ानसाहब ने कनॉट सर्कस की एक बिल्डिंग की तीसरी मंज़िल में अंग्रेज़ी नाच सिखाने का स्कूल खोल रखा था जिसमें वो और उनकी बीवी और दो ऐंग्लो-इंडियन लड़कियाँ गोया स्टाफ़ में शामिल थीं। जंग के ज़माने में उस स्कूल पर हुन बरसा। इतवार के रोज़ उनके यहाँ सुब्ह को ‘जिम सैशन’ हुआ करते।

एक मर्तबा मैं भी ख़ुशवक़्त के साथ वहाँ गई थी। सुना था कि वक़ार साहिब की बीवी ऐसी महासती अनुसूया की अवतार हैं कि उनके मियाँ हुक्म देते हैं कि फ़लाँ-फ़लाँ लड़की से बहनापा गाँठो और फिर उसे मुझसे मिलाने के लिए लेकर आओ। और वो नेक-बख़्त ऐसा ही करती। एक-बार वो हमारे होस्टल में आई और चंद लड़कियों के सर हुई कि उसके साथ बारहखंबा रोड चल कर चाय पिएँ।

तक़सीम के बा'द वक़ार साहिब ब-क़ौल शख़्से लुट-लुटा कर लाहौर आन पहुँचे थे और माल रोड के पिछवाड़े एक फ़्लैट अलाट करवा कर उसमें अपना स्कूल खोल लिया था। शुरू’-शुरू’ में कारोबार मंदा रहा। दिलों पर मुर्दनी छाई थी। नाचने गाने का किसे होश था। उस फ़्लैट में तक़सीम से पहले आर्य समाजी हिंदुओं का म्यूज़िक स्कूल था। लकड़ी के फ़र्श का हाल, पहलू में दो छोटे कमरे, ग़ुस्ल-ख़ाने और बावर्ची-ख़ाना, सामने लकड़ी की बालकनी और शिकस्ता हिलता हुआ ज़ीना।

“हिंद माता संगीत महाविद्यालय” का बोर्ड बालकनी के जंगले पर अब तक टेढ़ा टँगा हुआ था। उसे उतार कर “वक़ार्ज़ स्कूल आफ़ बाल-रुम ऐंड टेप डांसिंग” का बोर्ड लगा दिया गया। अमरीकी फ़िल्मी रिसालों से तराश कर जेन केली, फ़्रेड अस्टर, फ्रैंक सेनाट्रा, डोरिस डे वग़ैरह की रंगीन तस्वीरें हाल की बोसीदा दीवारों पर आवेज़ाँ कर दी गईं और स्कूल चालू हो गया।

रेकॉर्डों का थोड़ा सा ज़ख़ीरा ख़ान साहब दिल्ली से साथ लेते आए थे। ग्रामोफोन और सैकेण्ड हैंड फ़र्नीचर फ़ारूक़ से रुपया क़र्ज़ लेकर उन्होंने यहाँ ख़रीद लिया। कॉलेज के मनचले लौंडों और नई दौलतमंद सोसाइटी की ताज़ा-ताज़ा फ़ैशनएबुल बेगमात को ख़ुदा सलामत रखे। दो तीन साल में उनका काम ख़ूब चमक गया।

फ़ारूक़ की दोस्ती की वज्ह से मेरा और उनका कुछ भावज और जेठ का सा रिश्ता हो गया था। वो अक्सर मेरी ख़ैर-ख़बर लेने जाते, उनकी बीबी घंटों मेरे साथ पकाने-रींधने, सीने-पिरोने की बातें किया करतीं। बे-चारी मुझसे बिल्कुल जिठानी वाला शफ़क़त का बरताव करतीं। ये मियाँ-बीवी ला-वल्द थे। बड़ा उदास बे-रंग बे-तुका सा ग़ैर-दिलचस्प जोड़ा था। ऐसे लोग भी दुनिया में मौजूद हैं!

कॉलेज में नई अमरीका-पलट नकचढ़ी प्रिंसिपल से मेरा झगड़ा हो गया। अगर वो सेर तो मैं सवा सेर। मैं ख़ुद अबुल-हसन तानाशाह से कौन कम थी। मैंने इस्तीफ़ा कॉलेज कमेटी के सिर पर मारा और फिर सन्त नगर लाहौर वापस गई। मैं पढ़ाते-पढ़ाते उकता चुकी थी। मैं कोई वज़ीफ़ा लेकर पी.एच.डी. के लिए बाहर जा सकती थी। मगर इस इरादे को भी कल पर टालती रही। कल अमरीकनों के दफ़्तर जाऊँगी जहाँ वो वज़ीफ़े बाँटते हैं। कल ब्रिटिश कौंसल जाऊँगी। कल एजूकेशन मिनिस्ट्री में स्कालरशिप की दरख़्वास्त भेजूँगी।

मज़ीद वक़्त गुज़र गया। क्या करूँगी कहीं बाहर जाकर? कौन से गढ़ जीत लूँगी? कौन से कद्दू में तीर मार लूँगी? मुझे जाने किस चीज़ का इंतिज़ार था? मुझे मा’लूम नहीं! इस दौरान मैं एक रोज़ वक़ार भाई मेरे पास हवास-बाख़्ता आए और कहने लगे, “तुम्हारी भाबी के दिमाग़ में फिर सौदा उठा। वो वीज़ा बनवा कर इंडिया वापस चली गईं और अब कभी आएँगी।”

“ये कैसे?”, मैंने ज़रा बे-परवाई से पूछा और उनके लिए चाय का पानी स्टोव पर रख दिया।

“बात ये हुई कि मैंने उन्हें तलाक़ दे दी। उनकी ज़बान बहुत बढ़ गई थी। हर वक़्त टर-टर... टर-टर।”

फिर उन्होंने सामने के खरे पलंग पर बैठ कर ख़ालिस शौहरों वाले अंदाज़ में बीवी के ख़िलाफ़ शिकायात का एक दफ़्तर खोल दिया और ख़ुद को बे-क़ुसूर और हक़ ब-जानिब साबित करने की कोशिश में मसरूफ़ रहे।

मैं बे-परवाई से ये सारी कथा सुना की। ज़िंदगी की हर बात इस क़दर बे-रंग, ग़ैर-अहम, ग़ैर-ज़रूरी और बे-मा’ना थी! कुछ अ’र्से बा'द वो मेरे यहाँ आकर बड़बड़ाए : “नौकरों ने नाक में दम कर रखा है। कभी इतना भी तुमसे नहीं होता कि आकर ज़रा भाई के घर की हालत ही दुरुस्त कर जाओ। नौकरों के कान उमेठो। मैं स्कूल भी चलाऊँ और घर भी…”

उन्होंने इस अंदाज़ से शिकायतन कहा, गोया उनके घर का इंतिज़ाम करना मेरा फ़र्ज़ था। चंद रोज़ बा'द मैं अपना सामान बाँध कर वक़ार साहिब के कमरों में मुंतक़िल हो गई और नाच सिखाने के लिए उनकी अस्सिटैंट भी बन गई। उसके महीने भर बा'द पिछले इतवार को वक़ार साहिब ने एक मौलवी बुलवा कर अपने दो चिरकुटों की गवाही में मुझसे निकाह पढ़वा लिया। अब मैं दिन-भर घर के काम में मसरूफ़ रहती हूँ… मेरा हुस्न-ओ-जमाल माज़ी की दास्तानों में शामिल हो चुका है। मुझे शोर-ओ-शग़फ़ पार्टियाँ हंगामे मुतलक़ पसंद नहीं। लेकिन घर में हर वक़्त ‘चाचा’ और ‘क्लिपसो’ और ‘राक एंड रोल’ का शोर मचता रहता है। बहर-हाल यही मेरा घर है!

मेरे पास इस वक़्त कई कॉलिजों में केमिस्ट्री पढ़ाने के ऑफ़र हैं मगर भला ख़ाना-दारी के धंदों से कहीं फ़ुर्सत मिलती है। नौकरों का ये हाल है कि आज रखो कल ग़ाइब। मैंने ज़ियादा की तमन्ना कभी नहीं की। सिर्फ़ इतना ही चाहा कि एक औसत दर्जे की कोठी हो। सवारी के लिए मोटर। ताकि आराम से हर जगह जा सकें। हम-चश्मों में बे-इ'ज़्ज़ती हो। चार मिलने वाले आएँ तो बिठाने के लिए क़रीने का ठिकाना हो और बस!

इस वक़्त हमारी डेढ़ दो हज़ार माहवार आमदनी है जो दो मियाँ-बीवी के लिए ज़रूरत से कहीं ज़ियादा है। इंसान अपनी क़िस्मत पर क़ाने’ हो जाए तो सारे दुख आपसे आप मिट जाते हैं। शादी कर लेने के बा'द लड़की के सर के ऊपर छत सी पड़ जाती है। आज कल की लड़कियाँ जाने किस रौ में बह रही हैं। किस तरह ये लोग हाथों से निकल जाती हैं। जितना सोचूँ अ’जीब सा लगता है और हैरत होती है।

मैंने तो कभी किसी से फ्लर्ट तक किया। ख़ुशवक़्त, फ़ारूक़ और उस सियाह फ़ाम देवज़ाद के इ’लावा जो मेरा शौहर है, मैं किसी चौथे आदमी से वाक़िफ़ नहीं। मैं शदीद बदमाश तो नहीं थी, मा’लूम मैं क्या थी और क्या हूँ... रिहाना, सादिया, प्रभा और ये लड़की जिसकी आँखों में मुझे देखकर दहशत पैदा हुई, शायद वो मुझसे ज़ियादा अच्छी तरह मुझसे वाक़िफ़ हों।

अब ख़ुशवक़्त को याद करने का फ़ायदा? वक़्त गुज़र चुका। जाने अब तक वो ब्रगेडियर मेजर जनरल बन चुका हो, आसाम की सरहद पर चीनियों के ख़िलाफ़ मोरचा लगाए बैठा हो, या हिंदुस्तान की किसी हरी-भरी छावनी के मेस में बैठा मूँछों पर ताव दे रहा हो और मुस्कुराता हो, शायद वो कब का कश्मीर के महाज़ पर मारा जा चुका हो, क्या मा'लूम! अँधेरी रातों में मैं आँखें खोले चुप-चाप पड़ी रहती हूँ। साईंस ने मुझे आ'लम-ए-मौजूदात के बहुत से राज़ों से वाक़िफ़ कर दिया है। मैंने केमिस्ट्री पर अनगिनत किताबें पढ़ी हैं। पहरों सोचा है पर मुझे बड़ा डर लगता है। अँधेरी रातों में मुझे बड़ा डर लगता है!

ख़ुशवक़्त सिंह! ख़ुशवक़्त सिंह! तुम्हें अब मुझसे मतलब?

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