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बीमार

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    "यह एक जिज्ञासापूर्ण रूमानी कहानी है जिसमें एक औरत लेखक को निरंतर ख़त लिख कर उसकी कहानियों की प्रशंसा करती है और साथ ही साथ अपनी बीमारी का उल्लेख भी करती जाती है जो लगातार शदीद होती जा रही है। एक दिन वो औरत लेखक के घर आ जाती है। लेखक उसके हुस्न पर मुग्ध हो जाता है और तभी उसे मालूम होता है कि वो औरत उसकी बीवी है जिससे डेढ़ बरस पहले उसने निकाह किया था।"

    अजब बात है कि जब भी किसी लड़की या औरत ने मुझे ख़त लिखा भाई से मुख़ातिब किया और बे रब्त तहरीर में इस बात का ज़रूर ज़िक्र किया कि वो शदीद तौर पर अलील है। मेरी तसानीफ़ की बहुत तारीफ़ें कीं। ज़मीन-ओ-आसमान के कुलाबे मिला दिए।

    मेरी समझ में नहीं आता था कि ये लड़कियां और औरतें जो मुझे ख़त लिखती हैं बीमार क्यों होती हैं। शायद इसलिए कि मैं ख़ुद अक्सर बीमार रहता हूँ। या कोई और वजह होगी, जो इसके सिवा और कोई नहीं हो सकती कि वो मेरी हमदर्दी चाहती हैं।

    मैं ऐसी लड़कियों और औरतों के ख़ुतूत का उमूमन जवाब नहीं दिया करता, लेकिन बा'ज़ औक़ात दे भी दिया करता हूँ, आख़िर इंसान हूँ। ख़त अगर बहुत ही दर्दनाक हो तो उसका जवाब देना इंसानी फ़राइज़ में शामिल हो जाता है।

    पिछले दिनों मुझे एक ख़त मौसूल हुआ, जो काफ़ी लंबा था। उसमें भी एक ख़ातून ने जिसका नाम मैं ज़ाहिर नहीं करना चाहता ये लिखा था कि वो मेरी तहरीरों की शैदाई है लेकिन एक अर्से से बीमार है। उसका ख़ाविंद भी दाइम-उल-मरीज़ है। उसने अपना ख़याल ज़ाहिर किया था कि जो बीमारी उसे लगी है उसके ख़ाविंद की वजह से है।

    मैंने उस ख़त का जवाब दिया लेकिन उसकी तरफ़ से दूसरा ख़त आया जिसमें ये गिला था कि मैंने उसके पहले ख़त की रसीद तक भेजी। चुनांचे मुझे मजबूरन उसको ख़त लिखना पड़ा। मगर बड़ी एहतियात के साथ।

    मैंने उस ख़त में उससे हमदर्दी का इज़हार किया। उसने लिखा था कि वो और भी ज़्यादा अलील होगई है और मरने के क़रीब है... ये पढ़ कर मैं बहुत मुतअस्सिर हुआ था। चुनांचे इसी तास्सुर के मातहत मैंने बड़े जज़्बाती अंदाज़ में उसे ये ख़त लिखा और उसको समझाने की कोशिश की कि ज़िंदगी ज़िंदा रहने के लिए है इससे मायूस हो जाना मौत है।

    अगर तुम ख़ुद में इतनी क़ुव्वत-ए-इरादी पैदा कर लो तो बीमारी का नाम-ओ-निशान तक रहेगा, मैं पिछले दिनों मौत के मुँह में था। सब डाक्टर जवाब दे चुके थे, लेकिन मैंने कभी मौत का ख़याल भी नहीं किया। नतीजा इसका ये निकला कि डाक्टर हैरत में गुम होके रह गए और मैं हस्पताल से बाहर निकल आया।

    मैंने उसको ये भी लिखा कि क़ुव्वत-ए-इरादी ही एक ऐसी चीज़ है जो हर नामुमकिन चीज़ को मुम्किन बना देती है। तुम अगर बीमार हो तो ख़ुद को यक़ीन दिला दो कि नहीं तुम बीमार नहीं अच्छी भली तंदुरुस्त हो।

    मेरे इस ख़त के जवाब में उसने जो कुछ लिखा उससे मैंने ये नतीजा अख़्ज़ किया कि उस पर मेरे वाज़ का कोई असर नहीं हुआ। बड़ा तवील ख़त था। पाँच सफ़हों पर मुश्तमिल... उसकी मंतिक़ और उसका फ़लसफ़ा अजीब क़िस्म का था। वो इस बात पर मुसिर थी कि ख़ुदा को ये मंज़ूर नहीं कि वो ज़्यादा देर तक इस दुनिया में ज़िंदा रहे।

    इस के इलावा उसने ये भी लिखा था कि मैं अपनी ताज़ा किताबें उसे भेजूं। मैंने दो नई किताबें उसको भेज दीं। उनकी रसीद आगई। बहुत बहुत शुक्रिया अदा किया गया था और मेरी तारीफ़ें ही तारीफ़ें थीं।

    मुझे बड़ी कोफ़्त हुई, जो किताबें मैंने उसको भेजी थीं, मेरी नज़र में उनकी कोई वक़अत नहीं थी। इसलिए कि वो सिर्फ़ हर रोज़ कुछ कमाने के लिए लिखी गई थीं। चुनांचे मैंने उसे लिखा कि तुम ने मेरी दो किताबों की जो इतनी तारीफ़ की है, ग़लत है... ये किताबें महज़ बकवास हैं, तुम मेरी पुरानी किताबें पढ़ो। उसमें तुम पूरी तरह मुझे जलवागर पाओगी।

    मैंने उस ख़त में अफ़साना नवीसी के फ़न पर बहुत कुछ लिख दिया था। बाद में मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने ये झक क्यों मारी। अगर लिखना ही था तो किसी रिसाले या पर्चे के लिए लिखता। ये क्या है, एक औरत को जिसके तुम सूरत आश्ना भी नहीं, इतना तवील और पुर मग़ज़ ख़त लिख दिया है।

    बहरहाल जब लिख दिया था तो उसे पोस्ट करना ही था। उसका जवाब तीसरे रोज़ आगया।

    अब के मुझे प्यारे भाई जान से मुख़ातिब किया गया था। उसने मेरी पुरानी तस्नीफ़ात मंगवा ली थीं और वो उन्हें पढ़ रही थी। लेकिन बीमारी रोज़-ब-रोज़ बढ़ रही थी। उसने मुझसे पूछा कि वो किसी हकीम का ईलाज क्यों कराए, क्योंकि वो डाक्टरों से बिल्कुल ना उमीद हो चुकी थी।

    मैंने उसे जवाब में लिखा, ईलाज तुम किसी से भी कराओ, ख़्वाह वो डाक्टर हो या हकीम... लेकिन याद रखो सब से ज़्यादा अच्छा मुआलिज ख़ुद आदमी आप होता है... अगर तुम अपनी ज़ेहनी परेशानियां दूर कर दो तो चंद रोज़ में तंदुरुस्त हो जाओगी।

    मैंने इस मौज़ू पर एक तवील लेक्चर लिख कर उसको भेजा। एक महीने के बाद उसकी रसीद पहुंची, जिसमें ये लिखा था कि उसने मेरी नसीहत पर अमल किया। लेकिन ख़ातिर-ख़्वाह नतीजा बरामद नहीं हुआ और ये कि वो मुझसे मिलने रही है... दो-तीन रोज़ में हैदराबाद से बंबई पहुंच जाएगी और चंद रोज़ मेरे हाँ ठहरेगी।

    मैं बहुत परेशान हुआ, छड़ा छटांक था। मगर एक फ़्लैट में रहता था जिस में दो कमरे थे। मैंने सोचा अगर ये मोहतरमा गईं तो मैं एक कमरा उनको दे दूंगा... उसमें वो चंद दिन गुज़ारना चाहें गुज़ार लें। ईलाज का बंदोबस्त भी हो जाएगा। इसलिए कि वहां का एक बड़ा हकीम मेरा बड़ा मेहरबान था।

    छः रोज़ तक आप ये समझिए कि मैं सूली पर लटका रहा। अख़बार वाले ने दरवाज़े पर दस्तक दी तो मैं ये समझा कि वो मोहतरमा तशरीफ़ ले आईं। बावर्चीख़ाने में नौकर ने अगर किसी बर्तन पर राख मलना शुरू की तो मेरा दिल धक-धक करने लगा कि शायद ये आवाज़ उस औरत के सैंडलों की है।

    मैं हिंदू-मुस्लिम फ़सादात की ख़बरें पढ़ रहा था कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैं ये समझा कि दूध वाला है। चुनांचे मैंने नौकर को आवाज़ दी, “देखो रहीम कौन है?”

    रहीम चाय बना रहा था... वो उबलती हुई केतली को वहीं चूल्हे पर छोड़कर बाहर निकला और दरवाज़ा खोला... थोड़ी देर के बाद वो मेरे कमरे में आया और मुझसे मुख़ातिब हो कर कहा, “एक औरत आई है।”

    मैं हैरतज़दा हो गया, “औरत?”

    “जी हाँ... एक औरत बाहर खड़ी है... वो आपसे मिलना चाहती है।”

    मैं समझ गया कि ये औरत वही होगी... बीमार, जो मुझे ख़त लिखती रही है, चुनांचे मैंने रहीम से कहा, “उसको अंदर ले आओ और बड़े कमरे में बिठा दो और कह दो कि साहब अभी जाऐंगे।”

    “जी अच्छा,” ये कह कर रहीम चला गया।

    मैंने अख़बार एक तरफ़ रख दिया और सोचने लगा कि ये औरत किस क़िस्म की होगी। दिक़ की मारी हुई या फ़ालिज ज़दा... मेरे पास क्यों आई है? नहीं मुझसे मिलने आई है, ग़ालिबन यहां किसी तबीब से अपना ईलाज कराने आई है।

    मैं उठा और ग़ुसलख़ाने में चला गया... वहां देर तक नहाता रहा और सोचता रहा कि ये औरत जो उसको इतने लंबे-चौड़े ख़त लिखती रही और जिसको कोई ख़तरनाक बीमारी चिमटी हुई है किस शक्ल-ओ-सूरत की होगी?

    बेशुमार शक्लें मेरे तसव्वुर में आईं। पहले मैंने सोचा अपाहिज होगी और मुझे उसको कुछ देना पड़ेगा। इत्तिफ़ाक़ की बात है कि तीन तारीख़ थी जब वो आई। मेरे पास तनख़्वाह के तीन सौ रुपये थे जो इधर-उधर के बिल अदा करने के बाद बच गए थे। इसलिए मेरी परेशानी में इज़ाफ़ा हुआ।

    मैंने नहाते हुए ये फ़ैसला कर लिया कि अगर उसे मदद की ज़रूरत है तो मैं उसे एक सौ रुपय दे दूँगा। लेकिन फ़ौरन मुझे ख़याल आया कि शायद उसको दिक़ हो और मुझे उसको हस्पताल में दाख़िल कराना पड़े... ये काम कोई मुश्किल नहीं था इसलिए कि मेरे कई दोस्त जे जे हस्पताल में काम करते थे।

    मैं उनमें किसी एक से भी कह दूं कि इस माज़ूर औरत को दाख़िल कर लो तो वो कभी इनकार करेंगे।

    मैं काफ़ी देर तक नहाता और उस औरत के मुतअल्लिक़ सोचता रहा... औरतों से मिलते हुए बड़ी उलझन महसूस होती थी। यही वजह है कि मैंने एक जगह निकाह तो कर लिया लेकिन डेढ़ बरस तक यही सोचता रहा कि उसे अगर अपने घर ले आऊं तो क्या होगा?

    जो होना था वो तो ख़ैर हो ही जाता अगर सबसे बड़ा मसला जो मुझे परेशान किए हुए था ये था कि जिसने सारी-ज़िंदगी में किसी औरत की क़ुर्बत हासिल नहीं की थी, अपनी बीवी से किस तरह पेश आता।

    अब एक औरत साथ वाले कमरे में बैठी मेरा इंतिज़ार कर रही थी और मैं डोंगे पे डोंगे भर के अपने बदन पर बेकार डाल रहा था, मैं असल में ख़ुद को उस औरत से मुलाक़ात करने के लिए तैयार कर रहा था।

    काफ़ी देर नहाने के बाद मैं ग़ुसलख़ाने से बाहर निकला। कमरे में जा कर कपड़े तबदील किए। बालों में तेल लगाया। कंघी की और सोचते सोचते पलंग पर लेट गया।

    चंद लम्हात के बाद रहीम आया और उसने मुझ से कहा, “वो औरत पूछती है कि आप कब फ़ारिग़ होंगे?”

    मैंने रहीम से कहा, “उनसे कह दो बस पाँच मिनट में आते हैं। कपड़े तबदील कर रहे हैं।”

    रहीम “जी अच्छा” कह कर चला गया।

    मैंने सोचा कि अब और ज़्यादा सोचना फ़ुज़ूल है... चलो उससे मिल ही लें। इतनी ख़त-ओ-किताबत होती रही है और फिर वो इतनी दूर से मिलने आई है, बीमार है। इंसानी शराफ़त का तक़ाज़ा है कि उसकी ख़ातिरदारी और दिलजोई की जाये।

    मैंने पलंग पर से उठकर स्लीपर पहने और दूसरे कमरे में जहां वो औरत थी दाख़िल हुआ। वो बुर्क़ा पहने थी, मैं सलाम कर के एक तरफ़ बैठ गया।

    मुझे उसके बुर्क़े के स्याह नक़ाब में सिर्फ़ उसकी नाक दिखाई दी जो काफ़ी तीखी थी... मैं बहुत उलझन महसूस कर रहा था कि उससे क्या कहूं। बहर-हाल मैंने गुफ़्तुगू का आग़ाज़ किया, “मुझे बहुत अफ़सोस है कि आपको इतनी देर इंतिज़ार करना पड़ा... दर असल मैं अपनी आदत की वजह से...”

    उस औरत ने मेरी बात काट कर कहा, “जी कोई बात नहीं... आप ख़्वाह मख़्वाह तकलीफ़ करते हैं... मैं तो इंतिज़ार की आदी हो चुकी हूँ।”

    मेरी समझ में कुछ आया मैं क्या कहूं। बस जो लफ़्ज़ ज़बान पर आए उगल दिए, आप किसका इंतिज़ार करती रही हैं?”

    उसने अपने चेहरे पर नक़ाब थोड़ी सी उठाई। इसलिए कि वो अपने नन्हे से रूमाल से अपने आँसू पोंछना चाहती थी। आँसू पोंछने के बाद उसने मुझसे पूछा, “आपने क्या कहा था मुझसे?”

    उसकी ठोढ़ी बड़ी प्यारी थी जैसे बनारसी आम की केसरी। जब उसकी नक़ाब उठी थी तो मैंने उसकी एक झलक देख ली थी। मैं तो उसके सवाल का जवाब दे सका इसलिए कि मैं उसकी ठोढ़ी में गुम होगया था। आख़िर उसे ही बोलना पड़ा, “आप ने पूछा था तुम किस का इंतिज़ार करती रही हो... जवाब सुनना चाहते हैं आप?”

    “जी हाँ... फ़रमाईए... लेकिन देखिए कोई ऐसी बात हो जिससे क़ुनूतियत का इज़हार हो।”

    उस औरत ने अपनी नक़ाब उलट दी। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि काली बदलियों में चांद निकल आया है। उसने नीची निगाहों से मुझसे कहा, “जानते हैं आप मैं कौन हूँ?”

    मैंने जवाब दिया, “जी नहीं।”

    उसने कहा, “मैं आप की बीवी हूँ... जिससे आप ने आज से डेढ़ बरस पहले निकाह किया था... मैं आप को लिखती रही हूँ कि मैं बीमार हूँ। मैं बीमार नहीं लेकिन अगर आपने इसी तरह मुझे इंतिज़ार में रखा तो यक़ीनन मर भी जाऊंगी।”

    मैं दूसरे रोज़ ही उसको घर ले आया बड़े ठाट से... अब मैं बहुत ख़ुश हूँ। ये वाक़िया मुझे मेरे एक दोस्त ने जो अफ़साना निगार और शायर है सुनाया था जिसे मैंने अपने अंदाज़ में रक़म कर दिया।

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    स्रोत :
    • पुस्तक : باقیات منٹو

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