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बीमार-ए-ग़म

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    स्टोरीलाइन

    यह कहानी समाज में औरत की स्थिति को बयान करती है। हमारे समाज ने औरत को हर तरह के हक़ दे रखे हैं। मगर जिस हक़ की उसे सबसे ज़्यादा ज़रूरत है उसी से उसे महरूम कर रखा है और वह हक़ है अपनी पसंद का जीवन-साथी चुनने का। अगर यह हक़ उसे नहीं तो फिर इस ज़िंदगी का फ़ायदा ही क्या।

    अभी तो ज़र्दी है रुख़ पे कम-कम, अभी से रोते हैं सारे हमदम

    यूँ ही जो चंदे रही तप-ए-ग़म, तो फिर लहू भी नहीं रहेगा

    उसे लाकर इसकी ख़्वाब-गाह में लिटा दिया गया। रात गर्म थी और वीरान। उसकी ख़्वाब-गाह की दीवारें हल्के आसमानी रंग की थीं। उस पर सियाह रंग में चीनी किसानों की तस्वीरें पेंट की हुई थीं जो चाय के खेत में मशक़्क़त कर रहे थे। ख़्वाब-गाह के लम्बे-लम्बे सुनहरे और फ़िरोज़ी रंग के पर्दे ख़िज़ाँ की हवा से जाने क्यों एक अजीब अलम-नाक अंदाज़ में हिल रहे थे, जैसे कोई उन्हें झिंझोड़ रहा हो और ज़िंदगी के ख़्वाब से बेदार कर रहा हो।

    एक तरफ़ एक छोटी से मुनक़्क़श संदल की मेज़ पर चाँदी के दो बड़े-बड़े गुलदानों में हिना के फूल रखे थे। जिनकी निकहत कमरे को कुछ और ज़ियादा हसीन बना रही थी। इक कोने में आसमानी रंग के पत्थर में मोहब्बत के देवता की तस्वीर लगी हुई थी। उसके क़दमों में मेरी पालतू बिल्ली शकूरी सो रही थी। दरीचे के नीचे सितार बे कसी की हालत में पड़ा था। उसका ग़िलाफ़ कोच के पास ही क़ालीन पर रखा हुआ था। उससे कुछ दूर ख़िज़ाँ के चंद ख़ुश्क और ज़र्द पत्ते पड़े हुए थे।

    उसे लाकर ख़्वाब-गाह में लिटा दिया गया। नीली साटन के फ़ानूस से छन कर मद्धम चराग़ की पीली-पीली किरनें उसके लेमूँ जैसे ज़र्द रंग चेहरे पर काँप कर उसकी ना-तवानी और इज़्मिहलाल को ज़ियादा दर्द-नाक बना रही थीं। सियाह, दराज़ और एशियाई हुस्न, दिल-फ़रेबी से लबरेज़, साटन जैसे बाल मख़मली तकिये पर बिखर गये थे।

    आह नाशाद लड़की!

    ज़िंदगी ने उससे बुरा सलूक किया।

    मैं इंतिहाई फ़िक्र-मंदी और इज़्तिरार की कैफ़ियत में उसके सिरहाने एक छोटी सी अलमारी से टेक लगाए खड़ी थी और उसे देख रही थी। हाय वो वक़्त! मुझे अब तक नहीं भूला। वाक़ई ज़िंदगी के चंद वाक़िआत इंसान को कभी नहीं भूलते! रात सुंसान और ख़ामोश थी। क़ब्रिस्तान की शाम की तरह ख़ामोश! खिड़की के बाहर बाग़ में कहीं दूर ताड़ के चुपचाप दरख़्तों पर चाँद तुलूअ हो रहा था। ख़िज़ाँ की हवाएँ ख़ुश्क पत्तों को उड़ा-उड़ा कर अंदर ला रही थीं। कई तो उसके बिस्तर पर भी पड़े थे। क़रीब ही दरीचे के बाहर नाशपाती की इक ख़िज़ाँ रसीदा पतली सी टहनी पर नील-गूँ चश्म अरबी बुलबुल उदास बैठी ज़र्द चाँद को तक रही थी जो उसके पीछे तुलूअ हो रहा था। रात के सन्नाटे में और चाँद की मद्धम ज़र्द रोशनी में नन्ही बुलबुल की सियाह तस्वीर ऐसी नज़र आती थी जैसे कोई मग़्मूम रूह आलम-ए-अर्वाह में बैठी अपने आमाल नामे पर ग़ौर कर रही हो।

    मेरा इज़्तिरार और ग़ुस्सा बढ़ता गया। आह बदनसीब मज़लूम लड़की! बे रहम रिवाज ने उसे तबाह कर दिया। उसकी ज़िंदगी की पंखुड़ी को रिवाज की ज़ालिम और बे पनाह उँगलियों ने क़रीब-क़रीब नोच लिया... अल्लाह! क्या मशरिक़ी लड़की महज़ इसलिए पैदा होती है कि वो दूसरों की ख़ुशियों पर भेंट चढ़ा दी जाए? क्या उसे ख़ुद अपनी ज़िंदगी के मामले में भी दख़ल देने का इख़्तियार नहीं? किधर हैं वो रिफार्मर, जो क़ौम के आगे लँबी-लँबी तक़रीरें करते और बहबूदी- ए-क़ौम का तराना बड़े ज़ोर-ओ-शोर से गाते हैं? स्टेजों पर खड़े होकर अपने सीने पर हाथ रख-रख कर, क़ौमी दर्द जताने वाले रिफ़ॉर्मर किधर हैं? वो गिरेबानों में मुँह डाल कर देखें, उन्होंने अपनी माओं के लिए क्या किया? लड़कियों के लिए क्या किया? जो कल क़ौम की माएँ बनने वाली हैं, क्या उनका हमदर्दी और क़ौम के इश्क़ से लबरेज़ दिल...मज़लूम लड़कियों की आह से थर्रा नहीं उठता। क्या उनकी तमाम हमदर्दी, तमाम दर्द महज़ फ़िर्क़ा-ए-रिजाल ही तक महदूद है? अगर उनके एहसासात सिर्फ़ मर्दों के दुख दर्द तक ही महदूद हैं तो फिर ये बुज़ुर्ग किस मुँह से क़ौम के इमाम बने फिरते हैं? फिर वो क्यों इस नाम से मंसूब किए जाते हैं? क्या वो औरत को क़ौम से ख़ारिज समझते हैं? क्या क़ौम सिर्फ़ मर्दों ही के एहतिजाज का नाम है?

    ख़ुदा! इन बुज़ुर्गों ने हमारे लिए क्या किया? कुछ नहीं किया। आह! कुछ भी नहीं किया। उनसे इतना भी हो सका कि हमको ज़िंदगी के इस नाज़ुक तरीन मसअले में राय देने का इख़्तियार दे दें, जिस पर मर्द और औरत की आइन्दा ख़ुशियों और उम्मीदों का इन्हिसार होता है और जिसमें दख़ल देना इंसानी फ़ितरत है। ये लोग लड़कों की यूनिवर्सिटियों के लिए झगड़ते हैं, अपनी अंजुमनों के लिए भीक माँगते हैं, अपनी शोहरत के लिए तक़रीरें करते हैं मगर हमारे लिए आज तक किसी बुज़ुर्ग ने, किसी रिफ़ॉर्मर ने ये क़ानून नहीं बनाया कि ख़ुद ज़िंदगी के मसाइल में हमारी राय ज़रूरी समझी जाए।

    कुछ सोच कर मेरी आँखों में आँसू आए। मैं बीमार पर झुक गई और मुश्किल से इतना कह सकी,जस्वती! उसने आँख खोली। सियाह और नर्गिसी आँख, जिसमें हज़ारों ही हसरतें थीं और कहा, आह! फिर छत की तरफ़ तकने लगी। उसकी नीम-वा आँखों में से ज़िंदगी की पुरानी तमन्नाएँ झाँकती मालूम होती थीं। अब भी वक़्त था। अब भी उसके बुज़ुर्ग उस फूल को बाद-ए-ख़िज़ाँ के तुंद झोंकों से बचा सकते थे।

    मैं आँसू पोंछती हुई बाग़ के दरवाज़े से बाहर आई। अब चाँद, उदास चाँद ताड़ के चुपचाप दरख़्तों पर गया था और ख़िज़ाँ-रसीदा टहनी पर मग़्मूम बुलबुल उसी तरह ख़ामोश बैठी उसे तक रही थी।

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