ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
ग़ज़ल 27
अशआर 8
बैठे बैठे फेंक दिया है आतिश-दान में क्या क्या कुछ
मौसम इतना सर्द नहीं था जितनी आग जला ली है
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रवानी में नज़र आता है जो भी
उसे तस्लीम कर लेते हैं पानी
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ये किस ने हात पेशानी पे रक्खा
हमारी नींद पूरी हो गई है
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वापस पलट रहे हैं अज़ल की तलाश में
मंसूख़ आप अपना लिखा कर रहे हैं हम
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बैठे बैठे इसी ग़ुबार के साथ
अब तो उड़ना भी आ गया है मुझे
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