ज़ुबैर फ़ारूक़
ग़ज़ल 10
अशआर 5
इतनी सर्दी है कि मैं बाँहों की हरारत माँगूँ
रुत ये मौज़ूँ है कहाँ घर से निकलने के लिए
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
एक इक कर के बहुत दुख साथ मेरे हो लिए
मरहला-दर-मरहला इक क़ाफ़िला बनता गया
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
फिर भी क्यूँ उस से मुलाक़ात न होने पाई
मैं जहाँ रहता था वो भी तो वहीं रहता था
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
है हर्फ़ हर्फ़ ज़ख़्म की सूरत खिला हुआ
फ़ुर्सत मिले तो तुम मिरा दीवान देखना
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
हर तरफ़ फैला हुआ था बे-यक़ीनी का धुआँ
ख़ुद-बख़ुद 'फ़ारूक़' फिर इक रास्ता बनता गया
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
पुस्तकें 7
वीडियो 7
This video is playing from YouTube