ताबिश देहलवी
ग़ज़ल 24
अशआर 5
अभी हैं क़ुर्ब के कुछ और मरहले बाक़ी
कि तुझ को पा के हमें फिर तिरी तमन्ना है
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छोटी पड़ती है अना की चादर
पाँव ढकता हूँ तो सर खुलता है
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शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया
तेरे लिए सरापा आदाब हो गए हम
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आईना जब भी रू-ब-रू आया
अपना चेहरा छुपा लिया हम ने
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ज़र्रे में गुम हज़ार सहरा
क़तरे में मुहीत लाख क़ुल्ज़ुम
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पुस्तकें 7
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