सय्यद ज़मीर जाफ़री
ग़ज़ल 15
नज़्म 11
अशआर 9
हम ने कितने धोके में सब जीवन की बर्बादी की
गाल पे इक तिल देख के उन के सारे जिस्म से शादी की
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बहन की इल्तिजा माँ की मोहब्बत साथ चलती है
वफ़ा-ए-दोस्ताँ बहर-ए-मशक़्कत साथ चलती है
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अब इक रूमाल मेरे साथ का है
जो मेरी वालिदा के हाथ का है
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एक लम्हा भी मसर्रत का बहुत होता है
लोग जीने का सलीक़ा ही कहाँ रखते हैं
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हँस मगर हँसने से पहले सोच ले
ये न हो फिर उम्र भर रोना पड़े
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