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सिराज फ़ैसल ख़ान

1991 | शाहजहाँपुर, भारत

सिराज फ़ैसल ख़ान

ग़ज़ल 18

नज़्म 24

अशआर 34

किताबों से निकल कर तितलियाँ ग़ज़लें सुनाती हैं

टिफ़िन रखती है मेरी माँ तो बस्ता मुस्कुराता है

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हमें रंजिश नहीं दरिया से कोई

सलामत गर रहे सहरा हमारा

तिरे एहसास में डूबा हुआ मैं

कभी सहरा कभी दरिया हुआ मैं

दश्त जैसी उजाड़ हैं आँखें

इन दरीचों से ख़्वाब क्या झांकें

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शायद अगली इक कोशिश तक़दीर बदल दे

ज़हर तो जब जी चाहे खाया जा सकता है

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