शाहिद सिद्दीक़ी
ग़ज़ल 22
अशआर 8
तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार कर लेंगे
मगर ये रंज रहेगा कि ज़िंदगी कम है
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एक पल के रुकने से दूर हो गई मंज़िल
सिर्फ़ हम नहीं चलते रास्ते भी चलते हैं
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न साथ देंगी ये दम तोड़ती हुई शमएँ
नए चराग़ जलाओ कि रौशनी कम है
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उरूज-ए-माह को इंसाँ समझ गया लेकिन
हनूज़ अज़्मत-ए-इंसाँ से आगही कम है
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क़रीब ओ दूर से आती है आप की आवाज़
कभी बहुत है ग़म-ए-जुस्तुजू कभी कम है
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