साग़र सिद्दीक़ी के शेर
कल जिन्हें छू नहीं सकती थी फ़रिश्तों की नज़र
आज वो रौनक़-ए-बाज़ार नज़र आते हैं
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ऐ दिल-ए-बे-क़रार चुप हो जा
जा चुकी है बहार चुप हो जा
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टैग : बहार
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जिस अहद में लुट जाए फ़क़ीरों की कमाई
उस अहद के सुल्तान से कुछ भूल हुई है
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ज़िंदगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह काटी है
जाने किस जुर्म की पाई है सज़ा याद नहीं
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मौत कहते हैं जिस को ऐ 'साग़र'
ज़िंदगी की कोई कड़ी होगी
लोग कहते हैं रात बीत चुकी
मुझ को समझाओ! मैं शराबी हूँ
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भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
तुम से कहीं मिला हूँ मुझे याद कीजिए
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तुम गए रौनक़-ए-बहार गई
तुम न जाओ बहार के दिन हैं
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मैं आदमी हूँ कोई फ़रिश्ता नहीं हुज़ूर
मैं आज अपनी ज़ात से घबरा के पी गया
है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं
मेरे नग़्मात को अंदाज़-ए-नवा याद नहीं
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टैग : दुआ
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काँटे तो ख़ैर काँटे हैं इस का गिला ही क्या
फूलों की वारदात से घबरा के पी गया
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ऐ अदम के मुसाफ़िरो होशियार
राह में ज़िंदगी खड़ी होगी
आज फिर बुझ गए जल जल के उमीदों के चराग़
आज फिर तारों भरी रात ने दम तोड़ दिया
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हश्र में कौन गवाही मिरी देगा 'साग़र'
सब तुम्हारे ही तरफ़-दार नज़र आते हैं
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मर गए जिन के चाहने वाले
उन हसीनों की ज़िंदगी क्या है
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अब कहाँ ऐसी तबीअत वाले
चोट खा कर जो दुआ करते थे
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चराग़-ए-तूर जलाओ बड़ा अंधेरा है
ज़रा नक़ाब उठाओ बड़ा अंधेरा है
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टैग : नक़ाब
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ये किनारों से खेलने वाले
डूब जाएँ तो क्या तमाशा हो
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मैं ने जिन के लिए राहों में बिछाया था लहू
हम से कहते हैं वही अहद-ए-वफ़ा याद नहीं
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मैं तल्ख़ी-ए-हयात से घबरा के पी गया
ग़म की सियाह रात से घबरा के पी गया
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बे-साख़्ता बिखर गई जल्वों की काएनात
आईना टूट कर तिरी अंगड़ाई बन गया
हूरों की तलब और मय ओ साग़र से है नफ़रत
ज़ाहिद तिरे इरफ़ान से कुछ भूल हुई है
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अब अपनी हक़ीक़त भी 'साग़र' बे-रब्त कहानी लगती है
दुनिया की हक़ीक़त क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
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रंग उड़ने लगा है फूलों का
अब तो आ जाओ! वक़्त नाज़ुक है
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एक वा'दा है किसी का जो वफ़ा होता नहीं
वर्ना इन तारों भरी रातों में क्या होता नहीं
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ग़म के मुजरिम ख़ुशी के मुजरिम हैं
लोग अब ज़िंदगी के मुजरिम हैं
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हम बनाएँगे यहाँ 'साग़र' नई तस्वीर-ए-शौक़
हम तख़य्युल के मुजद्दिद हम तसव्वुर के इमाम
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अब न आएँगे रूठने वाले
दीदा-ए-अश्क-बार चुप हो जा
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ये ज़ुल्फ़-बर-दोश कौन आया ये किस की आहट से गुल खिले हैं
महक रही है फ़ज़ा-ए-हस्ती तमाम आलम बहार सा है
जब जाम दिया था साक़ी ने जब दौर चला था महफ़िल में
इक होश की साअत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
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नग़्मों की इब्तिदा थी कभी मेरे नाम से
अश्कों की इंतिहा हूँ मुझे याद कीजिए
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छलके हुए थे जाम परेशाँ थी ज़ुल्फ़-ए-यार
कुछ ऐसे हादसात से घबरा के पी गया
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ख़ाक उड़ती है तेरी गलियों में
ज़िंदगी का वक़ार देखा है
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जिन से ज़िंदा हो यक़ीन ओ आगही की आबरू
इश्क़ की राहों में कुछ ऐसे गुमाँ करते चलो
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टैग : आगही
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जिन से अफ़्साना-ए-हस्ती में तसलसुल था कभी
उन मोहब्बत की रिवायात ने दम तोड़ दिया
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मुस्कुराओ बहार के दिन हैं
गुल खिलाओ बहार के दिन हैं
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तेरी सूरत जो इत्तिफ़ाक़ से हम
भूल जाएँ तो क्या तमाशा हो
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अब शहर-ए-आरज़ू में वो रानाइयाँ कहाँ
हैं गुल-कदे निढाल बड़ी तेज़ धूप है
जो चमन की हयात को डस ले
उस कली को बबूल कहता हूँ
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तक़दीर के चेहरे की शिकन देख रहा हूँ
आईना-ए-हालात है दुनिया तेरी क्या है
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एक नग़्मा इक तारा एक ग़ुंचा एक जाम
ऐ ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-दौराँ तुझे मेरा सलाम
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झिलमिलाते हुए अश्कों की लड़ी टूट गई
जगमगाती हुई बरसात ने दम तोड़ दिया
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ज़ुल्फ़-ए-बरहम की जब से शनासा हुई
ज़िंदगी का चलन मुजरिमाना हुआ
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दुनिया-ए-हादसात है इक दर्दनाक गीत
दुनिया-ए-हादसात से घबरा के पी गया
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