सबा अकबराबादी
ग़ज़ल 26
अशआर 34
अपने जलने में किसी को नहीं करते हैं शरीक
रात हो जाए तो हम शम्अ बुझा देते हैं
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समझेगा आदमी को वहाँ कौन आदमी
बंदा जहाँ ख़ुदा को ख़ुदा मानता नहीं
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इक रोज़ छीन लेगी हमीं से ज़मीं हमें
छीनेंगे क्या ज़मीं के ख़ज़ाने ज़मीं से हम
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भीड़ तन्हाइयों का मेला है
आदमी आदमी अकेला है
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आप के लब पे और वफ़ा की क़सम
क्या क़सम खाई है ख़ुदा की क़सम
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पुस्तकें 16
चित्र शायरी 7
वीडियो 12
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