रज़ा अज़ीमाबादी
ग़ज़ल 38
अशआर 25
देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब में
फिर जब तलक जिया मैं परेशान ही रहा
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इमारत दैर ओ मस्जिद की बनी है ईंट ओ पत्थर से
दिल-ए-वीराना की किस चीज़ से तामीर होती है
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सौ ईद अगर ज़माने में लाए फ़लक व-लेक
घर से हमारे माह-ए-मुहर्रम न जाएगा
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रफ़ू फिर कीजियो पैराहन-ए-यूसुफ़ को ऐ ख़य्यात
सिया जाए तो सी पहले तू चाक-ए-दिल ज़ुलेख़ा का
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सब कुछ पढ़ाया हम को मुदर्रिस ने इश्क़ के
मिलता है जिस से यार न ऐसी पढ़ाई बात
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