राम रियाज़
ग़ज़ल 21
अशआर 7
अब कहाँ वो पहली सी फ़ुर्सतें मयस्सर हैं
सारा दिन सफ़र करना सारी रात ग़म करना
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ज़िंदगी तो सपना है कौन 'राम' अपना है
क्या किसी को दुख देना क्या किसी का ग़म करना
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जो तेरे ग़म में जले हैं वो फिर बुझे ही नहीं
जब इन की राख कुरेदो शरारे ज़िंदा हैं
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तिरे इंतिज़ार में इस तरह मिरा अहद-ए-शौक़ गुज़र गया
सर-ए-शाम जैसे बिसात-ए-दिल कोई ख़स्ता-हाल समेट ले
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हम ओस के क़तरे हैं कि बिखरे हुए मोती
धोका नज़र आए तो हमें रोल के देखो
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