क़मर अब्बास क़मर
ग़ज़ल 16
नज़्म 3
अशआर 18
तिश्ना-लब ऐसा कि होंटों पे पड़े हैं छाले
मुतमइन ऐसा हूँ दरिया को भी हैरानी है
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मेरे माथे पे उभर आते थे वहशत के नुक़ूश
मेरी मिट्टी किसी सहरा से उठाई गई थी
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पहाड़ पेड़ नदी साथ दे रहे हैं मिरा
ये तेरी ओर मिरा आख़िरी सफ़र तो नहीं
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ये एहतिजाज अजब है ख़िलाफ़-ए-तेग़-ए-सितम
ज़मीं में जज़्ब नहीं हो रहा है ख़ूँ मेरा
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सर्द रातों का तक़ाज़ा था बदन जल जाए
फिर वो इक आग जो सीने से लगाई मैं ने
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क़ितआ 3
नस्री-नज़्म 1
वीडियो 13
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