क़ाबिल अजमेरी
ग़ज़ल 21
अशआर 31
वक़्त करता है परवरिश बरसों
हादिसा एक दम नहीं होता
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रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब
चंद शम्ओं के भड़कने से सहर होती नहीं
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रास्ता है कि कटता जाता है
फ़ासला है कि कम नहीं होता
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अब ये आलम है कि ग़म की भी ख़बर होती नहीं
अश्क बह जाते हैं लेकिन आँख तर होती नहीं
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हम बदलते हैं रुख़ हवाओं का
आए दुनिया हमारे साथ चले
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चित्र शायरी 4
वीडियो 17
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