मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम
ग़ज़ल 16
अशआर 20
सुब्ह होती है शाम होती है
उम्र यूँही तमाम होती है
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आस क्या अब तो उमीद-ए-नाउमीदी भी नहीं
कौन दे मुझ को तसल्ली कौन बहलाए मुझे
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तड़पती देखता हूँ जब कोई शय
उठा लेता हूँ अपना दिल समझ कर
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नासेह ख़ता मुआफ़ सुनें क्या बहार में
हम इख़्तियार में हैं न दिल इख़्तियार में
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हम ने पाला मुद्दतों पहलू में हम कोई नहीं
तुम ने देखा इक नज़र से दिल तुम्हारा हो गया
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