मुईन अहसन जज़्बी
ग़ज़ल 34
नज़्म 12
अशआर 30
जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किस को थी
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे
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मुख़्तसर ये है हमारी दास्तान-ए-ज़िंदगी
इक सुकून-ए-दिल की ख़ातिर उम्र भर तड़पा किए
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यही ज़िंदगी मुसीबत यही ज़िंदगी मसर्रत
यही ज़िंदगी हक़ीक़त यही ज़िंदगी फ़साना
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ऐ मौज-ए-बला उन को भी ज़रा दो चार थपेड़े हल्के से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ाँ का नज़ारा करते हैं
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मिले मुझ को ग़म से फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना
कि टपक पड़े नज़र से मय-ए-इशरत-ए-शबाना
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