मीर ख़लीक़
ग़ज़ल 3
अशआर 4
मिस्ल-ए-आईना है उस रश्क-ए-क़मर का पहलू
साफ़ इधर से नज़र आता है उधर का पहलू
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सर झुका लेता है लाला शर्म से
जब जिगर के दाग़ दिखलाते हैं हम
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नज़्अ' में गर मिरी बालीं पे तू आया होता
इस तरह अश्क मैं आँखों में न लाया होता
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ग़फ़लत में फ़र्क़ अपनी तुझ बिन कभू न आया
हम आप के न आए जब तक कि तू न आया
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