मतीन नियाज़ी
ग़ज़ल 9
अशआर 27
ज़िंदगी की भी यक़ीनन कोई मंज़िल होगी
ये सफ़र ही की तरह एक सफ़र है कि नहीं
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ऐसे खोए सहर के दीवाने
लौट कर शाम तक न घर आए
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हो न जब तक 'मतीन' कैफ़-ए-ग़म
आदमी को ख़ुदा नहीं मिलता
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ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे इंतिशार-ए-रहनुमाई से
इसी मंज़िल पे आ के आदमी दीवाना होता है
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तूफ़ाँ से बच के डूबी है कश्ती कहाँ न पूछ
साहिल भी ए'तिबार के क़ाबिल नहीं रहा
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