मारूफ़ रायबरेलवी
ग़ज़ल 7
नज़्म 5
अशआर 9
तिरे बदन की महक को गुलाब से तश्बीह
कि जैसे कोई दिखाए चराग़ सूरज को
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यक़ीन मानव कि उर्दू जो बोल सकता है
वो पत्थरों का जिगर भी टटोल सकता है
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हमारे मुँह पे उड़ाता हुआ वो धूल गया
हमीं ने चलना सिखाया हमीं को भूल गया
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असर दुआओं में होता है किस क़दर 'मारूफ़'
बलाएँ देखी हैं हम ने सरों से टलते हुए
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वक़्त जब आया तो सब दा'वे ज़बानी निकले
यार समझे थे जिन्हें दुश्मन-ए-जानी निकले
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