मंज़ूर हाशमी
ग़ज़ल 21
अशआर 29
यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी ले कर चराग़ जलता है
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क़ुबूल कैसे करूँ उन का फ़ैसला कि ये लोग
मिरे ख़िलाफ़ ही मेरा बयान माँगते हैं
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सुना है सच्ची हो नीयत तो राह खुलती है
चलो सफ़र न करें कम से कम इरादा करें
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कभी कभी तो किसी अजनबी के मिलने पर
बहुत पुराना कोई सिलसिला निकलता है
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इक ज़माना है हवाओं की तरफ़
मैं चराग़ों की तरफ़ हो जाऊँ
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