aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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मंज़ूर आरिफ़

ग़ज़ल 19

नज़्म 1

 

अशआर 4

बात तेरी सुनी नहीं मैं ने

ध्यान मेरा तिरी नज़र पर था

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वो क्या गया कि हर इक शख़्स रह गया तन्हा

उसी के दम से थीं बाहम रिफाक़तें सारी

ऐसा दिल-कश था कि थी मौत भी मंज़ूर हमें

हम ने जिस जुर्म की काटी है सज़ा ज़िंदाँ में

हर शय लम्हे की मेहमाँ है क्या गुल क्या ख़ुशबू

क्या मय क्या नश्शा-ए-आईना क्या आईना-रू

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