माइल लखनवी
अशआर 7
निगाह-ए-नाज़ की पहली सी बरहमी भी गई
मैं दोस्ती को ही रोता था दुश्मनी भी गई
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नज़र और वुसअत-ए-नज़र मालूम
इतनी महदूद काएनात नहीं
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मोहब्बत और 'माइल' जल्द-बाज़ी क्या क़यामत है
सुकून-ए-दिल बनेगा इज़्तिराब आहिस्ता आहिस्ता
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दावा-ए-इंसानियत 'माइल' अभी ज़ेबा नहीं
पहले ये सोचो किसी के काम आ सकता हूँ मैं
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याद और उन की याद की अल्लाह-रे मह्वियत
जैसे तमाम उम्र की फ़ुर्सत ख़रीद ली
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