काविश बद्री के शेर
एक बोसा होंट पर फैला तबस्सुम बन गया
जो हरारत थी मिरी उस के बदन में आ गई
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अब न वो अहबाब ज़िंदा हैं न रस्म-उल-ख़त वहाँ
रूठ कर उर्दू तो देहली से दकन में आ गई
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जवाब देने की मोहलत न मिल सकी हम को
वो पल में लाख सवालात कर के जाता है
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अज़-सर-ए-नौ फ़िक्र का आग़ाज़ करना चाहिए
बे-पर-ओ-बाल सही परवाज़ करना चाहिए
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माहौल सब का एक है आँखें वही नज़रें वही
सब से अलग राहें मिरी सब से जुदा मंज़र मिरा
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शाइरी में अन्फ़ुस-ओ-आफ़ाक़ मुबहम हैं अभी
इस्तिआरा ही हक़ीक़त में ख़ुदा सा ख़्वाब है
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एक मंज़र भी न देखा गया मुझ से 'काविश'
सारे आलम को कोई देख रहा है मुझ में
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मेरी आवाज़ को आवाज़ ने तक़्सीम किया
रेडियो में हूँ टेलीफ़ोन के अंदर हूँ मैं
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साँस लेने भी न पाया था कि मंज़र गुम हुआ
मैं किसी क़ाबिल न था वर्ना ठहरता और कुछ
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सुख की ज़मीं बसीत नहीं है तो क्या हुआ
दुख तो मिरा विशाल है आकाश की तरह
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कहाँ वो रुक के कोई बात कर के जाता है
हमेशा निस्फ़ मुलाक़ात कर के जाता है
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लफ़्ज़ की बुहतात इतनी नक़्द ओ फ़न में आ गई
मस्ख़ हो कर सूरत-ए-मअ'नी सुख़न में आ गई
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