कैफ़ अज़ीमाबादी
ग़ज़ल 5
अशआर 4
दीवार-ओ-दर पे ख़ून के छींटे हैं जा-ब-जा
बिखरा हुआ है रंग-ए-हिना तेरे शहर में
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ख़ुशबू-ए-हिना कहना नर्मी-ए-सबा कहना
जो ज़ख़्म मिले तुम को फूलों की क़बा कहना
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तुम समुंदर की रिफ़ाक़त पे भरोसा न करो
तिश्नगी लब पे सजाए हुए मर जाओगे
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निकल आए तन्हा तिरी रह-गुज़र पर
भटकने को हम कारवाँ छोड़ आए
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