इफ़्तिख़ार मुग़ल
ग़ज़ल 10
अशआर 14
कई दिनों से मिरे साथ साथ चलती है
कोई उदास सी ठंडी सी कोई परछाईं
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मिरे वजूद के अंदर मुझे तलाश न कर
कि इस मकान में अक्सर रहा नहीं हूँ मैं
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मोहब्बत और इबादत में फ़र्क़ तो है नाँ
सो छीन ली है तिरी दोस्ती मोहब्बत ने
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सवाद-ए-हिज्र में रक्खा हुआ दिया हूँ मैं
तुझे ख़बर नहीं किस आग में जला हूँ मैं
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हम ने उस चेहरे को बाँधा नहीं महताब-मिसाल
हम ने महताब को उस रुख़ के मुमासिल बाँधा
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