इदरीस बाबर के शेर
हाथ दुनिया का भी है दिल की ख़राबी में बहुत
फिर भी ऐ दोस्त तिरी एक नज़र से कम है
आज तो जैसे दिन के साथ दिल भी ग़ुरूब हो गया
शाम की चाय भी गई मौत के डर के साथ साथ
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अब तो मुश्किल है किसी और का होना मिरे दोस्त
तू मुझे ऐसे हुआ जैसे क्रोना मिरे दोस्त
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मौत की पहली अलामत साहिब
यही एहसास का मर जाना है
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टेंशन से मरेगा न क्रोने से मरेगा
इक शख़्स तिरे पास न होने से मरेगा
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तू भी हो मैं भी हूँ इक जगह पे और वक़्त भी हो
इतनी गुंजाइशें रखती नहीं दुनिया मिरे दोस्त!
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टूट सकता है छलक सकता है छिन सकता है
इतना सोचे तो कोई जाम उछाले कैसे
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इस अँधेरे में जब कोई भी न था
मुझ से गुम हो गया ख़ुदा मुझ में
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मैं जानता हूँ ये मुमकिन नहीं मगर ऐ दोस्त
मैं चाहता हूँ कि वो ख़्वाब फिर बहम किए जाएँ
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तमाम दोस्त अलाव के गिर्द जम्अ थे और
हर एक अपनी कहानी सुनाने वाला था
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इस क़दर मत उदास हो जैसे
ये मोहब्बत का आख़िरी दिन है
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वो मुझे देख कर ख़मोश रहा
और इक शोर मच गया मुझ में
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इक ख़ौफ़-ज़दा सा शख़्स घर तक
पहुँचा कई रास्तों में बट कर
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ज़रा सा मिल के दिखाओ कि ऐसे मिलते हैं
बहुत पता है तुम्हें छोड़ जाना आता है
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ख़ुद-कुशी भी नहीं मिरे बस में
लोग बस यूँही मुझ से डरते हैं
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मैं जिन्हें याद हूँ अब तक यही कहते होंगे
शाहज़ादा कभी नाकाम नहीं आ सकता
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इक दिया दिल की रौशनी का सफ़ीर
हो मयस्सर तो रात भी दिन है
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यहाँ से चारों तरफ़ रास्ते निकलते हैं
ठहर ठहर के हम इस ख़्वाब से निकलते हैं
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वही ख़्वाब है वही बाग़ है वही वक़्त है
मगर इस में उस के बग़ैर जी नहीं लग रहा
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वो जिन को मयस्सर थी हर इक चीज़-ए-दिगर भी
मुमकिन है सुहूलत की फ़रावानी से मर जाएँ
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पचास मील है ख़ुश्की से बहरिया-टाउन
बस एक घंटे में अच्छा ज़माना आता है
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रेग-ए-दिल में कई नादीदा परिंदे भी हैं दफ़्न
सोचते होंगे कि दरिया की ज़ियारत कर जाएँ
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दिल की इक एक ख़राबी का सबब जानते हैं
फिर भी मुमकिन है कि हम तुम से मुरव्वत कर जाएँ
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ब्रेक-डांस सिखाया है नाव ने दिल को
हवा का गीत समुंदर को गाना आता है
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कहानियों ने मिरी आदतें बिगाड़ी थीं
मैं सिर्फ़ सच को ज़फ़र-याब देख सकता था
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आँखों में उतरते हुए इतराएँ सितारे
सूरज हों तो जल कर तिरी पेशानी से मर जाएँ
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मिरे सवाल वही टूट-फूट की ज़द में
जवाब उन के वही हैं बने-बनाए हुए
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वही न हो कि ये सब लोग साँस लेने लगें
अमीर-ए-शहर कोई और ख़ौफ़ तारी कर
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हाँ ऐ गुबार-ए-आश्ना मैं भी था हम-सफ़र तिरा
पी गईं मंज़िलें तुझे खा गए रास्ते मुझे
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दर्द का दिल का शाम का बज़्म का मय का जाम का
रंग बदल बदल गया एक नज़र के साथ साथ
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फूल है जो किताब में अस्ल है कि ख़्वाब है
उस ने इस इज़्तिराब में कुछ न पढ़ा लिखा तो फिर
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ये किरन कहीं मिरे दिल में आग लगा न दे
ये मुआइना मुझे सरसरी नहीं लग रहा
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धूल उड़ती है तो याद आता है कुछ
मिलता-जुलता था लिबादा मेरा
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किधर गया वो कूज़ा-गर ख़बर नहीं
कोई सुराग़ चाक से नहीं मिला
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कोई भी दिल में ज़रा जम के ख़ाक उड़ाता तो
हज़ार गौहर-ए-नायाब देख सकता था
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पर नहीं होते ख़यालों के तो फिर
कैसे उड़ते हैं ग़ुबारा समझो
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काम की बात पूछते क्या हो
कुछ हुआ कुछ नहीं हुआ यानी
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