हम्माद नियाज़ी के शेर
वो पेड़ जिस की छाँव में कटी थी उम्र गाँव में
मैं चूम चूम थक गया मगर ये दिल भरा नहीं
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मैं अपने बाप के सीने से फूल चुनता हूँ
सो जब भी साँस थमी बाग़ में टहल आया
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सुब्ह सवेरे नंगे पाँव घास पे चलना ऐसा है
जैसे बाप का पहला बोसा क़ुर्बत जैसे माओं की
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आख़िरी बार मैं कब उस से मिला याद नहीं
बस यही याद है इक शाम बहुत भारी थी
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बस एक लम्हा तिरे वस्ल का मयस्सर हो
और उस विसाल के लम्हे को दाइमी किया जाए
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दिल के सूने सेहन में गूँजी आहट किस के पाँव की
धूप-भरे सन्नाटे में आवाज़ सुनी है छाँव की
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हम इस ख़ातिर तिरी तस्वीर का हिस्सा नहीं थे
तिरे मंज़र में आ जाए न वीरानी हमारी
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पेड़ उजड़ते जाते हैं
शाख़ों की नादानी से
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रोज़ मैं उस को जीत जाता था
और वो रोज़ ख़ुद को हारती थी
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भरवा देना मिरे कासे को
मिरे कासे को भरवा देना
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आँख बीनाई गँवा बैठी तो
तेरी तस्वीर से मंज़र निकला
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दिखाई देने लगी थी ख़ुशबू
मैं फूल आँखों पे मल रहा था
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कच्ची क़ब्रों पर सजी ख़ुशबू की बिखरी लाश पर
ख़ामुशी ने इक नए अंदाज़ में तक़रीर की
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हार दिया है उजलत में
ख़ुद को किस आसानी से
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उम्र की अव्वलीं अज़ानों में
चैन था दिल के कार-ख़ानों में
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कब मुझे उस ने इख़्तियार दिया
कब मुझे ख़ुद पे इख़्तियार आया
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हम ऐसे लोग जो आइंदा ओ गुज़िश्ता हैं
हमारे अहद को मौजूद से तही किया जाए
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पूछता फिरता हूँ गलियों में कोई है कोई है
ये वो गलियाँ हैं जहाँ लोग थे सरशारी थी
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सुन क़तार अंदर क़तार अश्जार की सरगोशियाँ
और कहानी पढ़ ख़िज़ाँ ने रात जो तहरीर की
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भुला दिया भी अगर जाए सरसरी किया जाए
मुतालेआ मिरी वहशत का लाज़मी किया जाए
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