गोपाल मित्तल के शेर
मुझे ज़िंदगी की दुआ देने वाले
हँसी आ रही है तिरी सादगी पर
फ़ितरत में आदमी की है मुबहम सा एक ख़ौफ़
उस ख़ौफ़ का किसी ने ख़ुदा नाम रख दिया
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क्या कीजिए कशिश है कुछ ऐसी गुनाह में
मैं वर्ना यूँ फ़रेब में आता बहार के
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तर्क-ए-तअल्लुक़ात ख़ुद अपना क़ुसूर था
अब क्या गिला कि उन को हमारी ख़बर नहीं
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ख़ुदा गवाह कि दोनों हैं दुश्मन-ए-परवाज़
ग़म-ए-क़फ़स हो कि राहत हो आशियाने की
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मेरा साक़ी है बड़ा दरिया-दिल
फिर भी प्यासा हूँ कि सहरा हूँ मैं
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अब शिकवा-ए-संग-ओ-ख़िश्त कैसा
जब तेरी गली में आ गया हूँ
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फ़र्क़ ये है नुत्क़ के साँचे में ढल सकता नहीं
वर्ना जो आँसू है दुर्र-ए-शाह-वार-ए-नग़्मा है
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फिर एक शोला-ए-पुर-पेच-ओ-ताब भड़केगा
कि चंद तिनकों को तरतीब दे रहा हूँ मैं
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