फ़रियाद आज़र
ग़ज़ल 9
नज़्म 1
अशआर 11
इस तमाशे का सबब वर्ना कहाँ बाक़ी है
अब भी कुछ लोग हैं ज़िंदा कि जहाँ बाक़ी है
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ऐसी ख़ुशियाँ तो किताबों में मिलेंगी शायद
ख़त्म अब घर का तसव्वुर है मकाँ बाक़ी है
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जो दूर रह के उड़ाता रहा मज़ाक़ मिरा
क़रीब आया तो रोया गले लगा के मुझे
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मैं उस की बातों में ग़म अपना भूल जाता मगर
वो शख़्स रोने लगा ख़ुद हँसा हँसा के मुझे
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मैं जिस में रह न सका जी-हुज़ूरियों के सबब
ये आदमी है उसी कामयाब मौसम का
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