फ़ैसल क़ादरी गुन्नौरी
ग़ज़ल 26
नज़्म 5
अशआर 51
हर किसी शख़्स के मुआफ़िक़ है
ऐसा लगता है तू मुनाफ़िक़ है
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उस ने जब से हाथ पकड़ना छोड़ दिया
तब से हम ने साथ में चलना छोड़ दिया
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कितनी बे-रंग ज़िंदगी है मिरी
'इश्क़ के रंग यार भर दो ना
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तुम्हारे जैसा न देखा कोई मिरे हमदम
हसीन यूँ तो जहाँ में मुझे हज़ार मिले
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तेरी ख़ातिर जो हुई उस हर शहादत को सलाम
सरज़मीन-ए-हिन्द तेरी शान-ओ-शौकत को सलाम
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