अज़हर फ़राग़
ग़ज़ल 20
नज़्म 1
अशआर 48
तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझ को क़ुबूल
ये सुहुलत तो मुझे सारा जहाँ देता है
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दफ़्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वगर्ना मैं
बारिश की एक बूँद न बे-कार जाने दूँ
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जब तक माथा चूम के रुख़्सत करने वाली ज़िंदा थी
दरवाज़े के बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था
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ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किस की
लोग आसान समझ लेते हैं आसानी को
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दीवारें छोटी होती थीं लेकिन पर्दा होता था
तालों की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था
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क़ितआ 1
वीडियो 3
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