अमीक़ हनफ़ी
ग़ज़ल 18
नज़्म 25
अशआर 20
इश्क़ के हिज्जे भी जो न जानें वो हैं इश्क़ के दावेदार
जैसे ग़ज़लें रट कर गाते हैं बच्चे स्कूल में
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ख़्वाब जो देखे न थे उन की सज़ा तो मिल गई
बारहा देखा जिन्हें उन का सिला मिलता नहीं
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ख़्वाहिशों की बिजलियों की जलती बुझती रौशनी
खींचती है मंज़रों में नक़्शा-ए-आसाब सा
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वो जब मुझ को देख रही थी मैं ने उस को देख लिया था
बस इतनी सी बात थी लेकिन बढ़ते बढ़ते कितनी बढ़ी है
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सुकूत तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का इक गराँ लम्हा
बना गया है सदाओं का सिलसिला मुझ को
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