अल्ताफ़ मशहदी
ग़ज़ल 17
नज़्म 4
अशआर 3
फिर दयार-ए-हिन्द को आबाद करने के लिए
झूम कर उट्ठो वतन आज़ाद करने के लिए
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टपके जो अश्क वलवले शादाब हो गए
कितने अजीब इश्क़ के आदाब हो गए
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पी के जीते हैं जी के पीते हैं
हम को रग़बत है ऐसे जीने से
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