आलोक यादव
ग़ज़ल 22
नज़्म 1
अशआर 12
दिलकशी थी उन्सियत थी या मोहब्बत या जुनून
सब मराहिल तुझ से जो मंसूब थे अच्छे लगे
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नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा
मैं मिल जाऊँगा मिट्टी में क़लम ज़िंदा रहेगा
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हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
आइने बद-नज़र भी होते हैं
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प्यार का दोनों पे आख़िर जुर्म साबित हो गया
ये फ़रिश्ते आज जन्नत से निकाले जाएँगे
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वाइ'ज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
पर क्या करूँ कि राह में ये जिस्म आ पड़ा
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