अख़्तर रज़ा सलीमी
ग़ज़ल 9
नज़्म 1
अशआर 13
इक आग हमारी मुंतज़िर है
इक आग से हम निकल रहे हैं
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आए अदम से एक झलक देखने तिरी
रक्खा ही क्या था वर्ना जहान-ए-ख़राब में
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पहले तराशा काँच से उस ने मिरा वजूद
फिर शहर भर के हाथ में पत्थर थमा दिए
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अब ज़मीं भी जगह नहीं देती
हम कभी आसमाँ पे रहते थे
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गुज़र रहा हूँ किसी जन्नत-ए-जमाल से मैं
गुनाह करता हुआ नेकियाँ कमाता हुआ
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