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अहमद कमाल परवाज़ी

1944 | उज्जैन, भारत

अहमद कमाल परवाज़ी

ग़ज़ल 20

अशआर 19

मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब

देर से चाँद निकलना भी ग़लत लगता है

तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ

जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ

इस क़दर आप के बदले हुए तेवर हैं कि मैं

अपनी ही चीज़ उठाते हुए डर जाता हूँ

तुम मिरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन

मैं अगर झूट बोलूँ तो अकेला हो जाऊँ

वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं

तमाम जिस्म को कासा बना के चलना है

पुस्तकें 2

 

ऑडियो 15

अमल बर-वक़्त होना चाहिए था

कँवारे आँसुओं से रात घाएल होती रहती है

ज़रा ज़रा सी कई कश्तियाँ बना लेना

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