अबुल मुजाहिद ज़ाहिद
ग़ज़ल 7
नज़्म 3
अशआर 10
एक हो जाएँ तो बन सकते हैं ख़ुर्शीद-ए-मुबीं
वर्ना इन बिखरे हुए तारों से क्या काम बने
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तुम चलो इस के साथ या न चलो
पाँव रुकते नहीं ज़माने के
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तमाम उम्र ख़ुशी की तलाश में गुज़री
तमाम उम्र तरसते रहे ख़ुशी के लिए
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मिला न घर से निकल कर भी चैन ऐ 'ज़ाहिद'
खुली फ़ज़ा में वही ज़हर था जो घर में था
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लोग चुन लें जिस की तहरीरें हवालों के लिए
ज़िंदगी की वो किताब-ए-मो'तबर हो जाइए
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