अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल 55
नज़्म 28
अशआर 44
बुरा हो आईने तिरा मैं कौन हूँ न खुल सका
मुझी को पेश कर दिया गया मिरी मिसाल में
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बचपन में हम ही थे या था और कोई
वहशत सी होने लगती है यादों से
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दोस्त अहबाब से लेने न सहारे जाना
दिल जो घबराए समुंदर के किनारे जाना
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दाद-ओ-तहसीन की बोली नहीं तफ़्हीम का नक़्द
शर्त कुछ तो मिरे बिकने की मुनासिब ठहरे
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ख़याल क्या है जो अल्फ़ाज़ तक न पहुँचे 'साज़'
जब आँख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है
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