आदिल असीर देहलवी
ग़ज़ल 5
नज़्म 13
अशआर 2
बाक़ी है अब भी तर्क-ए-तमन्ना की आरज़ू
क्यूँकर कहूँ कि कोई तमन्ना नहीं मुझे
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काग़ज़ तमाम किल्क तमाम और हम तमाम
पर दास्तान-ए-शौक़ अभी ना-तमाम है
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रुबाई 1
दोहा 10
ख़िदमत से उस्ताद की रहता है जो दूर
चेहरे पर उस के नहीं अच्छाई का नूर
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क्या नादाँ से दोस्ती क्या दाना से बैर
दोनों ऐसे काम हैं जिन में नहीं है ख़ैर
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जो राह की अच्छी है उधर जाता है
बच कर वो बुराई से गुज़र जाता है
पढ़ कर ही तो आता है सलीक़ा बच्चो
ता'लीम से इंसान सुधर जाता है
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अम्मी होंगी मुंतज़िर और कहीं मत जाओ
छूटो जब इस्कूल से सीधे घर को आओ
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दुश्मन भी हैरान है कर के लाख बिगाड़
तेरी मर्ज़ी के बिना हिलता नहीं पहाड़
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