मर गए पर भी न हो बोझ किसी पर अपना
मर गए पर भी न हो बोझ किसी पर अपना
रूह के साथ हुआ हो तन-ए-लाग़र अपना
बे-तरह दिल में भरा रहता है ज़ुल्फ़ों का धुआँ
दम निकल जाए किसी रोज़ न घुट कर अपना
यार सोता नहीं मुँह कर के हमारी जानिब
कभी करवट नहीं लेता है मुक़द्दर अपना
तुम जो दो फूल चढ़ाओ तो ख़ुशी के मारे
क़ब्र खुल जाए ये फूले तन-ए-लाग़र अपना
इंतिज़ाम आप की सरकार में यूँ लाज़िम है
बंद-ओ-बस्त आप का घर में रहे बाहर अपना
हूर भी तुम हो निगाहों में परी भी तुम हो
अब तो ऐ जान दिल आया है तुम्हीं पर अपना
नूर बरसाती है ज़ुल्फ़ों की घटा चेहरे पर
पाँव उस कूचे में फिसलेगा मुक़र्रर अपना
नींद फ़ुर्क़त में कहाँ मौत से आने वाली
घर से बेहतर है जो तकिए में हो बिस्तर अपना
ख़ाना-बर्बाद क्या इश्क़ ने तिफ़्ली से हमें
कि मिटा बैठी घरौंदे की तरह घर अपना
अब न कुछ बोलते बनती है न चुप रहते हमें
न दिल अपना नज़र आता है न दिलबर अपना
वादा-ए-वस्ल अगर आज भी पूरा न हुआ
ये समझ लीजिए वा'दा है बराबर अपना
ख़ूब-रू कुछ भी अगर बंदा-नवाज़ी फ़रमाएँ
मालदारों को करें बंदा-ए-बे-ज़र अपना
बे गला काटे हुए रात नहीं कटने की
सदक़ा अबरू का दिए जाइए ख़ंजर अपना
डोर हैं सिल्क-ए-गुहर पर कहें अशआ'र ऐ 'बहर'
क़द्र-दाँ हो तो सुनाएँ उसे जौहर अपना
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.