इक ख़लिश को हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ रहने दिया
इक ख़लिश को हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ रहने दिया
जान कर हम ने उन्हें ना-मेहरबाँ रहने दिया
आरज़ू-ए-क़ुर्ब भी बख़्शी दिलों को इश्क़ ने
फ़ासला भी मेरे उन के दरमियाँ रहने दिया
कितनी दीवारों के साए हाथ फैलाते रहे
इश्क़ ने लेकिन हमें बे-ख़ानुमाँ रहने दिया
अपने अपने हौसले अपनी तलब की बात है
चुन लिया हम ने तुम्हें सारा जहाँ रहने दिया
कौन इस तर्ज़-ए-जफ़ा-ए-आसमाँ की दाद दे
बाग़ सारा फूँक डाला आशियाँ रहने दिया
ये भी क्या जीने में जीना है बग़ैर उन के 'अदीब'
शम्अ' गुल कर दी गई बाक़ी धुआँ रहने दिया
- पुस्तक : Nuquush Lahore (पृष्ठ 349)
- रचनाकार : Mohd Tufail
- प्रकाशन : Idara Farog-e-urdu, Lahore (Feb.1956 )
- संस्करण : Feb.1956
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