Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

नन्ही की नानी

इस्मत चुग़ताई

नन्ही की नानी

इस्मत चुग़ताई

MORE BYइस्मत चुग़ताई

    स्टोरीलाइन

    ‘मर्द भयानक होते हैं, बच्चे बदज़ात और औरत डरपोक।’ नानी अपनी नवासी नन्ही के साथ मौहल्ले में रहती है। वह मौहल्ले के लोगों की बेगार कर के किसी तरह अपना पेट पालती है। नन्ही कुछ बड़ी होती है तो उसे डिप्टी साहब के यहाँ रखवा देती है। लेकिन एक रोज़ वह डिप्टी साहब की हवस का शिकार हो जाती है और अपनी जवानी तक मौहल्ले के न जाने कितने लोग उसे अपना शिकार बनाते हैं। एक रोज़ वह भाग जाती है और नानी अकेली रह जाती है। अकेली नानी अपनी मौत तक मौहल्ले में डटी रहती है, लेकिन इस दौरान मौहल्ले वाले जिस तरह का सुलूक नानी के साथ करते हैं वह बहुत दर्दनाक है।

    नन्ही की नानी का माँ बाप का नाम तो अल्लाह जाने किया था। लोगों ने कभी उन्हें उस नाम से याद ना किया। जब छोटी सी गलियों में नाक सुड़-सुड़ाती फिरती थीं तो बफ़ातन की लौंडिया के नाम से पुकारी गईं। फिर कुछ दिन “बशीरे की बहू” कहलाईं फिर “बिसमिल्लाह की माँ” के लक़ब से याद की जाने लगीं। और जब बिसमिल्लाह चापे के अंदर ही नन्ही को छोड़कर चल बसी तो वो “नन्ही की नानी” के नाम से आख़िरी दम तक पहचानी गईं।

    दुनिया का कोई ऐसा पेशा ना था जो ज़िंदगी में “नन्ही की नानी” ने इख़्तियार ना किया। कटोरा गिलास पकड़ने की उम्र से वो तेरे मेरे घर में दो वक़्त की रोटी और पुराने कपड़ों के इव्ज़ ऊपर के काम पर धर ली गईं। ये ऊपर का काम कितना नीचा होता है। ये कुछ खेलने कूदने की उम्र से काम पर जोत दिए जाने वाले ही जानते हैं। नन्हे मियाँ के आगे झुन-झुना बजाने की ग़ैर दिलचस्प ड्यूटी से लेकर बड़े सरकार के सर की मालिश तक ऊपर के काम की फ़ेहरिस्त में जाती है।

    ज़िंदगी की दौड़ भाग में कुछ भनोमना भुलसना भी गया और ज़िंदगी के कुछ साल मामा गैरी में बीत गए। पर जब दाल में छिपकली बघार दी और रोटियों में मक्खियाँ पिरोने लगीं तो मजबूरन रिटायर होना पड़ा। उसके बाद तो नन्ही की नानी बस लगाई बुझाई करने उधर की बात उधर पहुंचाने के सिवा और किसी करम की ना रहीं। ये लगाई बुझाई का पेशा भी ख़ास्सा मुनाफ़ा बख़्श होता है। मुहल्ले में खटपट चलती रहती है। मुख़ालिफ़ कैंप में जाकर अगर होशयारी से मुख़्बिरी की जाये तो ख़ूब-ख़ूब ख़ातिर-मुदारात होती है। लेकिन ये पेशा कै दिन चलता, नानी लतरी कहलाने लगीं और दाल गलती ना पाकर नानी ने आख़िरी और मुफ़ीद तरीन पेशा यानी मुहज़्ज़ब तरीक़े पर भीक माँगना शुरू कर दी।

    खाने के वक़्त नानी नाक फैलाकर सूंघतीं कि किस घर में क्या पक रहा है। बेहतरीन ख़ुशबू की डोर पकड़ कर वो घर में आन बैठतीं।

    “ए बीवी घियां डाली हैं गोश में,” वो बे-तकल्लुफ़ी से पूछतीं।

    “नहीं बुआ घियें निगोड़ी आजकल गलें कहाँ हैं... आलू डाले हैं।”

    “ए सुब्हान-अल्लाह। क्या ख़ुश्बू है। अल्लाह रक्खे बिसमिल्लाह के बाबा को आलूओं से इश्क़ था। रोज़ यही कि बिसमिल्लाह की माँ आलू गोश जो आँखों से भी दुख जावे... बीवी कोथमेर छोड़ दिया?” वो एक दम फ़िक्रमंद हो जातीं।

    “नहीं कोथमेर निगोड़ा सब मारा गया, मुआ सक़्क़े का कुत्ता क्यारी में लौट गया।”

    “है है बग़ैर कोथमेर के भला आलू गोश क्या ख़ाक मज़ा देगा। हकीम जी के यहां मुँह लगा है।”

    “ए नहीं नानी हकीम जी के लौंडे ने कल शब्बन मियाँ की पतंग में कुटकी लगा दी। इस पर मैंने कहा ख़बरदार जो छज्जे पे क़दम रखा तो...”

    “ए मैं कोई तुमाए नाम से थोड़ी माँगूँगी...” और नानी बुर्क़ा सँभाले स्लीपरें सिटपिटाती हकीम जी के यहां जा पहुंचतीं। धूप खाने के बहाने खिसकती घिसटती क्यारी के पास मुंडेर तक पहुंच जातीं। पहले एक पत्ती तोड़ कर सूँघने के बहाने चुटकी में मसलतीं। हकीम जी की बहू की आँख बची और मारा नानी ने कोथमेर पर बुकट्टा। कोथमेर मुहय्या करने के बाद ज़ाहिर है दो निवाले की हक़दार हो ही जातीं।

    नानी अपने हाथ की सफ़ाई के लिए सारे मुहल्ला में मशहूर थीं। खाने पीने की चीज़ देखी और लुक़मा मार गईं। बच्चे के दूध की पतीली मुँह से लगाई दो घूँट ग़ट लिए। शकर की फंकी मार ली। गुड़ की डेली तालू से चिपका ली मज़े से धूप में बैठी चूस रही हैं। डली उठाई नेफ़े में उड़स ली। दो चपातियाँ लीं और आधी नेफ़े के उधर आधी ऊपर से, मोटा कुरता आहिस्ता-आहिस्ता हसब-ए-मामूल कराहती कूंकती खिसक गईं। सब जानते थे पर किसी को मुँह खोलने की हिम्मत ना थी क्योंकि नानी के बूढ़े हाथों में बिजली की सी सुरअत थी और बे चबाए निगल जाने में वो कोई ऐब ना समझती थीं। दूसरे ज़रा से शय पर ही फ़ेल मचाने पर तुल जाती थीं और इतनी क़समें खाती थीं। क़ुरआन उठाने की धमकीयाँ देती थीं कि तौबा भली। अब कौन उनसे झूटा क़ुरआन उठवा कर अपनी क़ब्र में भी कीड़े पड़वाए।

    लतरी, चोर और चकमा बाज़ होने के इलावा नानी परले दर्जे की झूटी भी थीं। सबसे बड़ा झूट तो उनका वो बुर्क़ा था जो हर-दम उनके ऊपर सवार रहता था। कभी इस बुर्क़े में निक़ाब भी थी। पर जूँ-जूँ मुहल्ला के बड़े बूढ़े चल बसे या नीम अंधे हो गए तो नानी ने निक़ाब को ख़ैरबाद कह दिया। मगर कंगूरों-दार फ़ैशनेबल बुर्क़े की टोपी उनकी खोपड़ी पर चीपकी रहती। आगे चाहे महीन कुरते के नीचे बनियान ना हो पर पीछे बुर्क़ा बादशाहों की झोल की तरह लहराता रहे और ये बुर्क़ा सिर्फ़ सत्तर ढाँकने के लिए ही नहीं था बल्कि दुनिया का हर मुम्किन और ना-मुमकिन काम इसी से लिया जाता था। ओढ़ने बिछाने और गड़ी मुड़ी करके तकिया बनाने के इलावा, जब नानी कभी ख़ैर से नहातीं तो उसे तौलिया के तौर पर इस्तिमाल करतीं। पंज वक़्ता नमाज़ के लिए जा-ए-नमाज़ और जब महल्ले के कुत्ते दाँत निकोसें तो उनसे बचाओ के लिए अच्छी ख़ासी ढाल। कुत्ता पिंडली पर लपका और नानी के बुर्क़ा का घेरा उस के मुँह पर फनकारा। नानी को बुर्क़ा बहुत प्यारा था फ़ुर्सत में बैठ कर हसरत से उसके बुढ़ापे पर बिसोरा करतीं। जहां कोई चिन्दी कत्तर मिली और एहतियातन पैवंद चिपका लिया। वो उस दिन के ख़्याल से ही लरज़ उठती थीं जब ये बुर्क़ा भी चल बसेगा। आठ गज़ लट्ठा कफ़न को जुड़ जावे यही बहुत जानो।

    नानी का कोई मुस्तक़िल हेड-क्वार्टर नहीं। सिपाही जैसी ज़िंदगी है आज इसके दलान में तो कल उसकी सहंची में जहां जगह मिली पड़ाव डाल दिया। जब धुतकार पड़ी कूच करके आगे चल पड़ीं। आधा बुर्क़ा ओढ़ा आधा बिछाया लंबी तान ली।

    मगर बुर्क़े से भी ज़्यादा वो जिसकी फ़िक्र में घुलती थीं वो थी उनकी इकलौती नवासी नन्ही। कड़क मुर्ग़ी की तरह नानी पर फैलाए उसे पोटे तले दाबे रहतीं। क्या मजाल जो नज़र से ओझल हो जाएगी मगर जब हाथ पैरों ने जवाब दे दिया और महल्ले वाले चौकन्ने हो गए, उनकी जूतियों की घिस-घिस सुनकर ही चाक-ओ-चौबंद हो कर मोरचे पर डट जाते। ढिटाई से नानी के इशारे किनाये से मांगने को सुना अन-सुना कर जाते तो नानी को उसके सिवा कोई चारा ना रहा कि नन्ही को उसके आबाई पेशे यानी ऊपर के काम पर लगा दें। बड़े सोच बिचार के बाद उन्होंने उसे डिप्टी साहिब के यहां रोटी कपड़ा और डेढ़ रुपया महीना पर छोड़ ही दिया। पर वो हर-दम साये की तरह लगी रहतीं। नन्ही नज़र से ओझल हुई और बल-बलाएं। पर नसीब का लिखा कहीं बूढ़े हाथों से मिटा है। दोपहर का वक़्त था। डिप्टियायन अपने भाई के घर बेटे का पैग़ाम लेकर गई हुई। सरकार ख़श-ख़ाना में क़ैलूला फ़र्मा रहे थे। नन्ही पंखे की डोरी थामे ऊँघ रही थी। पंखा रुक गया और सरकार की नींद टूट गई। शैतान जाग उठा और नन्ही की क़िस्मत सो गई।

    कहते हैं बुढ़ापे के आसेब से बचने के लिए मुख़्तलिफ़ अदवियात और तिल्लाओं के साथ हकीम बेद चूज़ों की यख़नी भी तजवीज़ फ़रमाते हैं। नौ बरस की नन्ही चूज़ा ही तो थी।

    मगर जब नन्ही की नानी की आँख खुली तो नन्ही ग़ायब। मुहल्ला छान मारा कोई सुराग़ ना मिला मगर रात को जब नानी थकी माँदी कोठरी को लौटी तो कोने में दीवार से टिकी हुई नन्ही ज़ख़्मी चिड़िया की तरह अपनी फीकी-फीकी आँखों से घूर रही थी। नानी की घिग्गी बंध गई और अपनी कमज़ोरी को छिपाने के लिए वो उसे गालियाँ देने लगीं। “मालज़ादी अच्छा छकाया। यहाँ आन कर मरी है। ढूंडते-ढूंडते पिंडलियाँ सूझ गईं। ठहर तो जा सरकार से कैसी चार चोट की मार लगवाती हूँ।”

    मगर नन्ही की चोट ज़्यादा देर ना छिप सकी। नानी सर पर दोहतड़ मार-मार कर चिंघाड़ने लगी। पड़ोसन ने सुना तो सर पकड़ कर रह गईं। अगर साहब-ज़ादे की लग़्ज़िश होती तो शायद कुछ डाँट डपट हो जाती। मगर डिप्टी साहब... मुहल्ले के मुखिया, तीन नवासों के नाना। पंज वक़्ता नमाज़ी। अभी पिछले दिनों मस्जिद में चटाईयां और लोटे रखवाए। मुँह से फूटने वाली बात नहीं।

    लोगों के रहम-ओ-करम की आदी नानी ने आँसू पी कर नन्ही की कमर सेंकी, आटे गुड़ का हलवा खिलाया और अपनी जान को सब्र करके बैठ रही। दो-चार दिन लौट पीट कर नन्ही उठ खड़ी हुई और चंद दिनों ही में सब कुछ भूल भाल गई।

    मगर मुहल्ले की शरीफ़ ज़ादीयाँ ना भूलें। छुप-छुप कर नन्ही को बुलातीं।

    “नईं... नानी मारेगी...” नन्ही टालती।

    “ले ये चूड़ियाँ पहन लीजो। नानी को क्या ख़बर होगी...” बीबियाँ बेक़रार हो कर फुसलातीं...

    “क्या हुआ... कैसे हुआ...” की तफ़सील पूछी जाती। नन्ही कच्ची-कच्ची मासूम तफसीलें देतीं। बीबियाँ नाकों पर दुपट्टे रखकर खिल-खिलातीं।

    नन्ही भूल गई... मगर क़ुदरत ना भूल सकी। कच्ची कली क़ब्ल अज़ वक़्त तोड़ कर खिलाने से पंखुड़ीयां झड़ जाती हैं... ठूंठ रह जाता है। नन्ही के चेहरे पर से भी ना जाने कितनी मासूम पंखुड़ीयां झड़ गईं। चेहरे पर फटकार और रोड़ापन। नन्ही बच्ची से लड़की नहीं बल्कि छलांग मार कर एक दम औरत बन गई। वो क़ुदरत के मश्शाक़ी हाथों की सँवारी भरपूर औरत नहीं बल्कि टेढ़ी-मेढ़ी औरत जिस पर किसी देव ने दो-गज़ लंबा पांव रख दिया हो। ठिंगनी मोटी कचौरा सी जैसे कच्ची मिट्टी का खिलौना कुम्हार के घुटने तले दब गया हो।

    मैली साफ़ी से कोई नाक पोंछे चाहे कूल्हे, कौन पूछता है। राह चलते उस के चुटकियाँ भरते। मिठाई के दोने पकड़ाते। नन्ही की आँखों में शैतान थिड़क उठता... मगर अब नानी बजाय उसे हलवे माड़े ठुसाने के उसका धोबी घाट करती, मगर मैली साफ़ी की धूल भी ना झड़ती। जानवर बड़ की गेंद, पट्टा खाया और उछल गई।

    चंद साल ही में नन्ही की चौमुखी से मुहल्ला लरज़ उठा। सुना की डिप्टी साहिब और साहब-ज़ादे में कुछ तन गई। फिर सुना मस्जिद के मुल्ला जी को रजुआ कुम्हार ने मारते-मारते छोड़ा। फिर सिद्दीक़ पहलवान का भांजा मुस्तक़िल हो गया।

    आए दिन नन्ही की नाक कटते-कटते बचती और गलियों में लठ पोंगा होता।

    और फिर नन्ही के तलवे जलने लगे। पैर धोने की रत्ती भर जगह ना रही। सिद्दीक़ पहलवान के भांजे की पहलवानी और नन्ही की जवानी ने मुहल्ला वालों का नातिक़ा बंद कर दिया। सुनते हैं दिल्ली, बम्बई में इस माल की थोक में खपत है। शायद दोनों वहीं चले गए।

    जिस दिन नन्ही भागी उस दिन नानी के फ़रिश्तों को भी शुबा ना हुआ। दो तीन दिन से निगोड़ी चुप-चुप सी थी। नानी से याद ज़बानी भी ना की। चुप-चाप आप ही आप बैठी हवा में घूरा करती।

    “ए नन्ही रोटी खाले,” नानी कहती।

    “नानी बी भूक नहीं!”

    “ए नन्ही अब देर हो गई सो जा।”

    “नानी बी नींद नहीं आती।”

    रात को नानी के पैर दबाने लगी

    “नानी बी... नानी बी,” सुब्हाना कल्लाहुम्मा सुन लो याद है कि नहीं। नानी ने सुना फ़र-फ़र याद।

    “जा बेटी अब सो जा,” नानी ने करवट ले ली।

    “अरी मरती क्यों नहीं,” नानी ने थोड़ी देर बाद उसे सहन में खट-पट करते सुन कर कहा। समझी ख़ानगी ने अब आँगन भी पलीद करना शुरू किया। कौन हरामी है जिसे आज घर में घुसा लाई है। पर सहन में घूर-घूर कर देखने पर नानी सहम कर रह गई। नन्ही इशा की नमाज़ पढ़ रही थी और सुबह नन्ही ग़ायब हो गई।

    कभी कोई दूर देस से आता है तो ख़बर जाती है, कोई कहता है नन्ही को एक बड़े नवाब साहब ने डाल लिया है टिम-टिम है मनों सोना है। बेगमों की तरह रहती है।

    कोई कहता है हीरा मंडी में देखा है।

    कोई कहता है फ़ारस रोड पर किसी ने उसे सोना गाजी में देखा।

    मगर नानी कहती है नन्ही को हैज़ा हुआ था। चार घड़ी लोट-पोट कर मर गई।

    नन्ही का सोग मनाने के बाद नानी कुछ ख़बतन भी हो गईं। लोग राह चलते छेड़ख़ानी करते।

    “अ नानी निकाह कर लो...” भाबी जान छेड़तीं।

    “किस से कल्लूं? ला अपने ख़सम से करा दे,” नानी बिगड़तीं।

    “ए नानी मुल्ला जी से कर लो। अल्लाह क़सम तुम पर जान देते हैं।” और नानी की मुग़ल्लिज़ात शुरू हो जातीं। वो वो पैंतरे गालियों में निकालतीं कि लोग भौंचक्के रह जाते।

    “मिल तो जाये भड़वा... दाढ़ी ना उखेड़ लूं तो कहना।” मगर जब मुल्ला जी कभी गली के नुक्कड़ पे मिल जाते तो नानी सच-मुच शरमा सी जातीं।

    इलावा महल्ले के लड़कों बालों के नानी के अज़ली दुश्मन तो मुए निगोड़े बंदर थे जो पीढ़ियों से इसी महल्ले में पलते बढ़ते आए थे। जो हर फ़र्द का कच्चा चिट्ठा जानते थे। मर्द ख़तरनाक होते हैं और बच्चे बदज़ात, औरतें तो सिर्फ डरपोक होती हैं। परनानी भी उन्हीं बंदरों में पल कर बुढ़ियाई थीं। उन्होंने बंदरों को डराने के लिए किसी बच्चे की ग़ुलेल हथिया ली थी। और सर पर बुर्क़े का पग्गड़ बांध कर वो ग़ुलेल तान कर जब उचकतीं तो बंदर थोड़ी देर को शश्दर ज़रूर रह जाते और फिर बेतवज्जुही से टहलने लगते।

    और बंदरों से आए दिन उनकी बासी टुकड़ों पर चख़ चलती रहती। महल्ले में जहां कहीं शादी ब्याह चिल्ला चालीसवाँ होता, नानी झूटे टुकड़ों का ठेका ले लेतीं। लंगर ख़ैरात बटती तो भी चार-चार मर्तबा चकमा देकर हिस्सा लेतीं। मनों खाना बटोर लाने के बाद वो उसे हसरत से तकतीं काश उनके पेट में भी अल्लाह पाक ने कुछ ऊंट जैसा इंतेज़ाम किया होता तो कितने मज़े रहते। मज़े से चार दिन की ख़ुराक मादे में भर लेतीं। छुट्टी रहती। मगर अल्लाह पाक ने रिज़्क़ का इतना ऊट-पटांग इंतेज़ाम करने के बाद पेट की मशीन क्यों इस क़दर नाक़िस बना डाली कि एक दो वक़्त के खाने से ज़्यादा ज़ख़ीरा जमा करने का ठौर ठिकाना नहीं। इसलिए नानी टाट के बसेरों पर झूटे टुकड़े फैला कर सुखातीं फिर उन्हें मटकों में भर लेतीं। जब भूक लगी ज़रा से सूखे टुकड़े चूमर किए, पानी का छींटा दिया, चुटकी भर लून मिर्च बुर्का और लज़ीज़ मलग़ूबा तैयार।

    लेकिन गरमियों और बरसात के दिनों में बारहा ये नुस्ख़ा उन पर हैज़ा तारी कर चुका था। चुनांचे बस जाने पर उन टुकड़ों को औने-पौने बेच डालतीं ताकि लोग अपने कुत्तों और बकरियों वग़ैरा को खिला दें। मगर उमूमन कुत्तों और बकरियों के मादे नानी के ढीट मादे का मुक़ाबला ना कर पाते और लोग मोल तो क्या तोहफ़्तन भी इन फ़वाकिहात को क़ुबूलने पर तैयार ना होते। वही अज़ीज़-अज़-जान जूठे टिकरे जिन्हें बटोरने के लिए नानी को हज़ारों सलवातें और ठोकरें सहना पड़तीं और जिन्हें धूप में सुखाने के लिए उन्हें पूरी बंदर जाती से जिहाद मोल लेना पड़ता। जहां टुकड़े फैलाए गए और बंदरों के क़बीले को बेतार बर्क़ी ख़बर पहुंची। अब क्या है ग़ोल दर ग़ोल दीवारों पर डटे बैठे हैं। खपरैलों पर धमा-चौकड़ी मचा रहे हैं। छप्पड़ खसूट रहे हैं और आते-जाते ये ख़िख़िया रहे हैं। नानी भी उस वक़्त मर्द-ए-मैदान बनी सर पर बुर्क़े का ढाटा बाँधे हाथ में ग़ुलेल लिए मोर्चे पर डट जातीं। सारा दिन “लगे। लगे” करके शाम को बचा खुचा कूड़ा बटोर बंदरों की जान को कोसती, नानी अपनी कोठरी में थक कर सो रहतीं।

    बंदरों को उनसे कुछ ज़ाती किस्म की पुर्ख़ाश हो गई थी। अगर ये बात ना होती तो क्यों जहान भर की नेअमतों को छोड़ कर सिर्फ नानी के टुकड़ों पर ही हमला-आवर होते और क्यों बदज़ात लाल पिछाए वाला उन्हीं का अज़ीज़-अज़-जान तकिया ले भागता। वो तकिया जो नन्ही के बाद नानी का वाहिद अज़ीज़ और प्यारा दुनिया में रह गया था, वो तकिया जो बुर्क़े के साथ उनकी जान पर हमेशा सवार रहता था, जिसकी सेवईयों को वो हर वक़त पक्का टांका मारती रहती थीं। नानी किसी कोने खदरे में बैठी तकिये से ऐसे खेला करतीं जैसे वो नन्ही सी बच्ची हूँ और वो तकिया उनकी गुड़िया, वो अपने सारे दुख उस तकिए ही से कह कर जी हल्का कर लिया करती थीं। जितना-जितना उन्हें तकिये पर लाड आता वो उस के टाँके पक्के करती जातीं।

    क़िस्मत के खेल देखिए नानी मुंडेर से लगी बुर्क़े की आड़ में नेफ़े से जुएँ चुन रही थीं कि बंदर धम से कूदा और तकिया ले ये जा वो जा। ऐसा मा’लूम हुआ कि कोई नानी का कलेजा नोच कर ले गया। वो दहाड़ें और चिल्लाऐं कि सारा महल्ला इकट्ठा वो गया।

    बंदरों का क़ायदा है कि आँख बची और कटोरा गिलास ले भागे और छज्जे पर बैठे दोनों हाथों से कटोरा दीवार पर घिस रहे हैं। कटोरे का मालिक नीचे खड़ा चुमकार रहा है। प्याज़ दे रोटी दे जब बंदर मियाँ का पेट भर गया कटोरा फेंक अपनी राह ली। नानी ने मटकी भर टुकड़े लुटा दिए पर हरामी बंदर ने तकिया ना छोड़ना था ना छोड़ा। सौ जतन किए गए मगर उसका जी ना पिघला। और उसने मज़े से तकिये के ग़लाफ़ प्याज़ के छिलकों की तरह उतारने शुरू किए। वही ग़िलाफ़ जिन्हें नानी ने चिंधी आँखों से घूर-घूर कर पक्के टांकों से गूँथा था।

    जूँ-जूँ ग़लाफ़ उतरते जाते नानी की बद-हवासी और बिल-बिलाहट में ज़्यादती होती जाती और आख़िरी ग़लाफ़ भी उतर गया। और बंदर ने एक-एक करके छज्जे पर से टपकाना शुरू किए। रोटी के गाले नहीं बल्कि शब्बन की फतवइ, बानू सुक्के का अँगोछा... हसीना बी की अंगिया... मुन्नी बी की गुड़िया का ग़रारा, रहमत की ओढ़नी और ख़ैराती का कच्छना... खैरुन के लौंडे का तमंचा... मुंशी जी का मफ़लर और इब्राहीम की क़मीज़ की आसतीन मअ कफ़... सिद्दीक़ की तहमद का टुकड़ा, आमना बी की सुर्मे-दानी और बफातन की कजलूटी। सकीना बी की अफ़्शां की डिबिया... मुल्ला-जी की तस्बीह का इमाम और बाक़िर मियाँ की सज्दा-गाह।

    बिसमिल्लाह का सूखा हुआ नाल और कलावा में बंधी हुई नन्ही की पहली साल गिरह की हल्दी की गाँठ, दूब और चांदी का छल्ला, और बशर ख़ां का गिल्ट का तमग़ा जो उसे जंग से ज़िंदा लौट आने पर सरकार-ए-आलिया से मिला था।

    मगर किसी ने इन चीज़ों को ना देखा... बस देखा तो इस चोरी के माल को जिसे साल-हा-साल की छापा मारी के बाद नानी ने लिख लूट जोड़ा था।

    “चोर... बेईमान... कमीनी।”

    “निकालो बुढ़िया को महल्ले से।”

    “पुलिस में दे दो।”

    “अरे इस की तोशक भी खोलो इसमें ना जाने क्या-क्या होगा।” ग़रज़ जो जिसके मुँह में आया कह गया।

    नानी की चीख़ें एक दम रुक गईं। आँसू ख़ुश्क। सर नीचा और ज़बान गुंग काटो तो ख़ून नहीं। रात भी जूँ की तूँ दोनों घुटने मुट्ठियों में दाबे हिल-हिल कर सूखी-सूखी हिचकियाँ लेती रहीं। कभी अपने माँ बाप का नाम लेकर कभी मियाँ को याद करके कभी बिसमिल्लाह और नन्ही को पुकार कर बैन करतीं... दम-भर को ऊँघ जाती फिर जैसे पराए नासूरों में च्यूंटे चटकने लगते और वो बिल-बिला कर चौंक उठतीं। कभी चहकी पहकी रोतीं कभी ख़ुद से बातें करने लगतीं। फिर आप ही आप मुस्कुरा उठतीं और फिर तारीकी में से कोई पुरानी याद का भाला खींच मारता और वो बीमार कुत्ते की तरह नीम इन्सानी आवाज़ से सारे मुहल्ले को चौंका देतीं।

    दो दिन उसी हालत में बीत गए, मुहल्ले वालों को आहिस्ता-आहिस्ता एहसास-ए-नदामत होना शुरू हुआ। किसी को भी तो उन चीज़ों की अशद ज़रूरत ना थी। बरसों की खोई चीज़ों को कभी का रो पीट कर भूल चुके थे। वो बेचारे ख़ुद कौन से लख-पती थे। तिनके का बोझ भी ऐसे मौक़ा पर इन्सान को शहतीर की तरह लगता है। लोग उन चीज़ों के बग़ैर ज़िंदा थे। शब्बन की फतवइ अब सर्दीयों से धींगा मुश्ती करने के क़ाबिल कहाँ थी, वो उसके मिलने के इंतेज़ार में अपनी पढ़वार थोड़ी रोक बैठा था। हसीना बी ने अंगया चोली की एहमीयत को बेकार समझ कर उसे ख़ैरबाद कह दिया था। मिट्टी की गुड़िया का ग़रारा किस मसरफ़ का वो तो कभी की गुड़ियों की उम्र से गुज़र कर हंडिकलियों की उम्र को पहुंच चुकी थी। मुहल्ले वालों को नानी की जान लेना थोड़ी मंज़ूर थी।

    पुराने ज़माने में एक देव था। उस देव की जान थी एक भँवरे में। सात-समुंदर पार एक ग़ार में संदूक़ था। उस संदूक़ में एक संदूक़ और उस संदूक़ में एक डिबिया थी जिसमें एक भौंरा था। एक बहादुर शहज़ादा आया... और उसने पहले भँवरे की एक टांग तोड़ दी, उधर देव की एक टांग जादू के ज़ोर से टूट गई ,फिर उसने दूसरी टांग तोड़ी और देव की दूसरी टांग भी टूट गई, फिर उसने भँवरे को मसल डाला और देव मर गया।

    नानी की जान भी तकिया में थी और बंदर ने वो जादू का तकिया दानों से चीर डाला। और नानी के कलेजे में गर्म सलाख उतर गई।

    दुनिया का कोई दुख कोई ज़िल्लत कोई बदनामी ऐसी ना थी जो नसीब ने नानी को ना बख़्शी हो। जब सुहाग की चूड़ियों पर पत्थर गिरा था तो समझी थीं अब कोई दिन की मेहमान हैं पर जब बिसमिल्लाह को कफ़न पहनाने लगीं तो यक़ीन हो गया कि ऊंट की पीठ पर ये आख़िरी तिनका है और जब नन्ही मुँह पर कालिख लगा गई तो नानी समझीं बस ये आख़िरी घाव है।

    ज़माने भर की बीमारियां पैदाइश के वक़्त से झेलीं। सात बार तो चेचक ने उनकी सूरत पे झाड़ू फेरी। हर साल तीज तहवार के मौक़े पर हैज़े का हमला होता।

    तेरा मेरा गू-मूत धोते-धोते उंगलीयों के पोरे सड़ गए। बर्तन मांझते हथेलियाँ छलनी हो गईं। हर साल अंधेरे-उजाले ऊंची नीची सीढ़ीयों से लुढ़क पड़तीं। दो-चार दिन लोट-पोट कर फिर घिसटने लगतीं। पिछले जन्म में नानी ज़रूर कुत्ते की कली रही होंगी। जभी तो इतनी सख़्त-जान थीं। मौत का क्या वास्ता जो उनके क़रीब फटक जाये। बसरियाँ लगाए फिरीं मगर मुर्दे का कपड़ा तन से ना छू जाये। कहीं मरने वाला सिलवटों में मौत ना छुपा गया हो जो नाज़ों की पाली नानी को आन दबोचे मगर यूं आक़िबत बंदरों के हाथों लुटेगी, उस की किसे ख़बर थी।

    सुब्ह-सवेरे बहिश्ती मशक डालने गया था, देखा नानी खपरैल की सीढ़ीयों पर अकड़ूं बैठी हैं मुँह खुला है। मक्खियाँ नीम वा आंखों के कोनों में घुस रही हैं। यूं नानी को सोता देखकर लोग उन्हें मुर्दा समझ कर डर जाया करते थे। मगर नानी हमेशा बड़-बड़ा कर बलग़म थूकती जाग पड़ती थीं और हंसने वाले को हज़ार सलवातें सुना डालती थीं।

    मगर उस दिन सीढ़ीयों पर उकड़ूं बैठी हुई नानी दुनिया को एक मुस्तक़िल गाली देकर चल बसीं, ज़िंदगी में कोई कल सीधी ना थी। करवट करवट कांटे थे। मरने के बाद कफ़न में भी नानी उकड़ूं लिटाई गईं। हज़ार खींच-तान पर भी अकड़ा हुआ जिस्म सीधा ना हुआ

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए