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मुनीर जाफ़री

ग़ज़ल 28

नज़्म 11

अशआर 15

टीस उट्ठी थी कहीं ज़ेर-ए-ज़मीं और इधर

शहर का शहर मकानों से निकल आया था

मुझ को फ़क़त शजर की नुमू से है वास्ता

सहरा को साया-दार नहीं कर रहा हूँ मैं

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महव-ए-सफ़र हूँ ख़ित्ता-ए-दुनिया के उस तरफ़

और ख़ुद को होशियार नहीं कर रहा हूँ मैं

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दिल पर पहन लिया है वो गजरे के जैसा शख़्स

लेकिन गले का हार नहीं कर रहा हूँ मैं

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आवाज़ को ग़ुबार नहीं कर रहा हूँ मैं

माहौल दाग़-दार नहीं कर रहा हूँ मैं

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