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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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मंसूर आफ़ाक़

ग़ज़ल 16

नज़्म 4

 

अशआर 11

सर्द ठिठुरी हुई लिपटी हुई सरसर की तरह

ज़िंदगी मुझ से मिली पिछले दिसम्बर की तरह

बारिशें उस का लब-ओ-लहजा पहन लेती थीं

शोर करती थी वो बरसात में झाँझर की तरह

वो तिरा ऊँची हवेली के क़फ़स में रहना

याद आए तो परिंदों को रिहा करता हूँ

बस एक रात से कैसे थकन उतरती है

बदन को चाहिए आराम कुछ ज़ियादा ही

तुझ ऐसी नर्म गर्म कई लड़कियों के साथ

मैं ने शब-ए-फ़िराक़ डुबो दी शराब में

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