एहसान दानिश
ग़ज़ल 61
अशआर 40
'एहसान' अपना कोई बुरे वक़्त का नहीं
अहबाब बेवफ़ा हैं ख़ुदा बे-नियाज़ है
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ख़ाक से सैंकड़ों उगे ख़ुर्शीद
है अंधेरा मगर चराग़-तले
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मरने वाले फ़ना भी पर्दा है
उठ सके गर तो ये हिजाब उठा
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लोग यूँ देख के हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे
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वफ़ा का अहद था दिल को सँभालने के लिए
वो हँस पड़े मुझे मुश्किल में डालने के लिए
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