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हम एक ढलती हुई धूप के त'आक़ुब में

कैफ़ अहमद सिद्दीकी

हम एक ढलती हुई धूप के त'आक़ुब में

कैफ़ अहमद सिद्दीकी

MORE BYकैफ़ अहमद सिद्दीकी

    हम एक ढलती हुई धूप के त'आक़ुब में

    हैं तेज़-गाम साए साए जाते हैं

    चमन में शिद्दत-ए-दर्द-ए-नुमूद से ग़ुंचे

    तड़प रहे हैं मगर मुस्कुराए जाते हैं

    मैं वो ख़िज़ाँ का बरहना-बदन शजर हूँ जिसे

    लिबास-ए-ज़ख़्म-ए-बहाराँ पहनाए जाते हैं

    शफ़क़ की झील में जब भी है डूबता सूरज

    तो पास धूप ही जाती साए जाते हैं

    ये ज़िंदगी वो तड़पती ग़ज़ल है 'कैफ़' जिसे

    हर एक साज़-ए-हवादिस पे गाए जाते हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : shab khuun (44) (rekhta website) (पृष्ठ 51)
    • संस्करण : 1969

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