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ख़लाई दौर की मुहब्बत

अख़्तर जमाल

ख़लाई दौर की मुहब्बत

अख़्तर जमाल

MORE BYअख़्तर जमाल

    स्टोरीलाइन

    भविष्य में अंतरिक्ष में आबाद होने वाली दुनिया का ढाँचा इस कहानी का विषय है। एक लड़की बरसों से अंतरिक्ष स्टेशनों पर रह रही है। वह लगातार ग्रहों और उपग्रहों की यात्राएँ करती रहती है और अपने काम को आगे बढ़ाती रहती है। अपनी इन्हीं व्यस्तताओं के कारण उसे इतना भी समय नहीं मिलता कि वह धरती पर रहने वाले अपने परिवार से कुछ पल बात कर सके। इन्हीं यात्राओं में उसे एक शख़्स से मोहब्बत हो जाती है। उस शख़्स से एक बार मिलने के बाद दोबारा मिलने के लिए उसे बीस साल का लम्बा इंतज़ार करना पड़ता है। इस बीच वह अपने काम को आगे बढ़ाती रहती है, ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए मोहब्बत करना आसान हो सके।

    अपना ख़लाई सूट पहने आँखों और कानों पर ख़ौल चढ़ाए ख़लाई दौर में अपनी चमकदार और ख़ूबसूरत आँखों से वो ख़ला के कितने ही सय्यारे देख चुकी थी। हर रंग के आसमान हर रंग की ज़मीन और हर रंग के हज़ार रूप।

    उसे ज़मीन से दूर ख़लाई मर्कज़ में रहते हुए दस साल बीत गए थे। ज़मीन मेरी प्यारी ज़मीन उसे हर सय्यारे से अपनी ज़मीन प्यारी लगती। वो ज़मीन की तरफ़ हाथ कर के अपने होंटों से अपनी उँगलियाँ चूम लेती और उसका ये उड़ता हुआ बोसा ज़मीन को उसके पास ले आता। उसे ये महसूस होता कि वो अपने नन्हे से ख़ूबसूरत कुंबे में मौजूद है।

    उसका बाप अपने कमरे में बैठा बटन दबाकर ज़मीन पर हल चला रहा है और ख़ुद-कार मशीनों से घास के गट्ठे इकट्ठे हो जाते हैं। उसकी माँ अभी तक अपने हाथ से खाना पकाना पसंद करती है, इसलिए बावर्ची-ख़ाने में है। माँ के हाथ का बनाया हुआ ख़ुशबूदार सूप उसे ख़ला में उड़ते हुए भी अक्सर याद आता। मगर इन दस सालों से वो सिर्फ़ चार रंग-बिरंगी गोलियों को ख़ुराक के तौर पर इस्ति’माल करती थी। इनमें से हर गोली में इतनी ग़िजाइयत थी कि उसे सारे दिन में बस तीन गोलियाँ लेनी पड़ती थीं। पानी उसके पास मौजूद होता था। ख़लाई जहाज़ में पानी की कमी थी।

    उसने दस साल की उ’म्र में ख़लाई ट्रेनिंग लेना शुरू’ की थी और अब तक वो हर क़िस्म के कैप्सूलों और ख़लाई रेलों और जहाज़ों में सफ़र कर चुकी थी। वो अपनी फुर्ती और समझदारी की वज्ह से ख़ला के अहम-तरीन मिशन में शामिल होती थी। मुख़्तलिफ़ सय्यारों के दरमियान भाई-चारे और ख़ैर-सिगाली को फ़रोग़ देने वालों में उसका नाम अहम था। कभी-कभी उसका जी चाहता था कि ख़लाई जहाज़ और ख़लाई स्टेशन और सय्यारों से दूर अपनी ज़मीन पर जाकर वो पूरा एक दिन गुज़ारे। कम-अज़-कम एक दिन की छुट्टी मिले तो वो ज़मीन पर जाए।

    उसके सब साथी भी उसकी तरह ख़लाई लिबास में हमेशा बहुत ज़ियादा मसरूफ़ भागते और दौड़ते नज़र आते। उनमें मर्द भी थे और औ’रतें भी थीं। उन्हें एक दूसरे से मिलने और बात करने के मवाक़े’ मिलते भी तो ज़ाती बातें कम होतीं काम से मुतअ’ल्लिक़ बातें ज़ियादा... इतनी मसरूफ़ियत में भी वो ये मा’लूम कर लेती कि उसकी कौन सी दोस्त की माँ, बाप या कुंबे का कोई फ़र्द बीमार है या मर चुका है और वो दौड़ते भागते चंद लफ़्ज़ अपनी साथी के पास बैठ कर दिल-जूई और हम-दर्दी के अदा करती और उसका मुहब्बत से हाथ पकड़ती। वो सब कार-कुन हम-दर्दी और मुहब्बत की इतनी सी फ़ुर्सत को बहुत जानते थे और किसी को किसी से कोई गिला होता था।

    उसकी दो छोटी बहनें थीं जो उसे बहुत याद आती थीं और उसे जब भी चंद लम्हों की छुट्टी मिलती वो ज़मीन पर कंट्रोल रुम के ज़रीए’ उनसे राब्ता क़ाएम करके बात कर लेती। लेकिन ये लम्हों की फ़ुर्सत भी इतनी कम मिलती कि उनकी ख़ैरियत जाने उसे महीनों गुज़र जाते। उसकी माँ उसे साल-गिरह के दिन ज़रूर पैग़ाम भेजती और बताती कि ज़मीन पर हम तुम्हारी साल-गिरह का केक काट रहे हैं और वो ज़मीन की तरफ़ अपना हाथ करके जब उड़ता हुआ बोसा